Friday, April 30, 2010

कामनवेल्थ गेम्स – राष्ट्रीय शर्म

मजदूरों के नाम पर जुटाए 500 करोड़, मारे गए 70 मजदूर मुआवजा एक को भी नहीं
दिल्ली में देशभर से आए मजदूरों की एक लाख से ज्यादा आबादी कामनवेल्थ गेम्स के लिए शहर को चमकाने और समृद्धि के कंगूरे खड़ा करने में लगी है। इसका कोई हिसाब नहीं है कि अब तक कितने मजदूर कुछ मुट्ठी भर लोगों के झूठे गर्व के लिए बलि चढ़ गए। जो प्रकाश में खबरें आईं हैं उनके मुताबित अबतक 70 मजदूर काम के दौरान मारे गए (लोकसभा में उठाए गए सवाल में भी यही आंकड़ा है)। आंकड़ा यह भी है कि इनमें से एक भी मजदूर को मुआवजा नहीं दिया गया। जबकि दिल्ली हाईकोर्ट ने फरवरी 2010 में श्रम कानूनों के उल्लंघन की जांच के लिए समिति गठित की, रिपोर्ट भी आ गई और उसपर अदालत ने निर्देश भी जारी कर दिया लेकिन कानूनों का उल्लंघन बदस्तूर जारी है। यह सब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ पाले दिल्ली की नाक के नीचे हो रहा है। प्रधानमंत्री भले ही लालीपाप देते रहें कि विकास में मजदूर बराबर के साझीदार हैं लेकिन मजदूरों के श्रम के बंदरबांट में राजनीति, न्यायलय, उद्योग, मीडिया सभी खुले साझीदार हैं। और मध्यवर्ग को आईपीएल से फुर्सत नहीं है।
सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार, निर्माण मजदूरों के पसीने से दिल्ली चमक रही है और इनके नाम पर सरकार ने उपकर लगाकर अपने खजाने में 500 करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि इकट्ठा कर ली है । भवन एवं सन्निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड ने मजदूरों के कल्याण के लिए आज तक कोई योजना बनाने की जरूरत नहीं समझी। ताज्जुब है कि सैकड़ों मजदूरों की जान जा चुकी है, लेकिन एक भी मजदूर को मुआवजा नहीं मिल पाया। महिला मुख्यमंत्री के राज में भी महिला श्रमिकों के साथ न्याय नहीं मिल पाया। यह भ्रष्ट सत्तातंत्र का एक नमूना भर है। देश की करोड़ो मजदूर आबादी महंगाई और उत्पीड़न से त्रस्त है लेकिन सरकार इसे कम करने की बजाए दमन का सहारा ले रही है।
खुद श्रमिक कल्याण बोर्ड ने माना है कि 2002 से 2009 तक कामनवेल्थ गेम्स में जिन मजदूरों की मौत हुई है, उनमें से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया। इस मामले में सिर्फ एक मामला ही बोर्ड के समक्ष विचाराधीन है। इतना ही नहीं सिर्फ 20 महिला श्रमिकों के बच्चों के क्रेच खर्च के नाम पर 9 लाख 33 हजार 907 रुपये खर्च होने की बात कही गई है। साथ ही 19 महिला मजदूरों के 30 बच्चों को आर्थिक सहायता देने के नाम पर महज 36 हजार रुपये खर्च किए गए हैं।
गौरतलब है कि निर्माण मजदूर एवं उनके परिवारों के कल्याण के लिए दिल्ली सरकार ने वर्ष 2002 में दिल्ली भवन एवं सन्निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड का गठन किया था, जिसकी जिम्मेदारी निर्माण मजदूरों का बोर्ड में पंजीकरण करवाना और उनके लिए कल्याणकारी योजना बनाकर क्रियान्वित करना है। इसके लिए सरकार को अलग से धनराशि की व्यवस्था भी नहीं करनी है। क्योंकि दिल्ली में हो रहे सभी निर्माण कार्य चाहे वे सरकारी एजेंसी द्वारा किए जा रहे हों या गैर सरकारी एजेंसी द्वारा, उनके निर्माण लागत का एक प्रतिशत उपकर के रूप में निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड में जमा कराने के निर्देश हैं। इस दौरान सिर्फ मेट्रो ने ही बोर्ड को 100 करोड़ रुपये दिया है। राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी तमाम परियोजनाओं से भी बोर्ड को 500 करोड़ रुपये मिले हैं। कामनवेल्थ गेम्स के निर्माण स्थल पर 12 लाख मजदूरों में से केवल 22000 का रजिस्ट्रेशन किया गया।
ऊपर से देखने में यह भ्रष्टाचार का मामला लगता है और लोकतंत्र का साइडइफेक्ट की तरह पेश किए जाने की कोशिश होती है लेकिन असल में यह इस व्यवस्था की ढांचागत दिक्कत है। वरना, विकास का सारा बोझ मजदूरों पर और सारी मलाई अमीरों के हिस्से न आती। इस व्यवस्था में अधिक से अधिक मुनाफा चाहने की हवस मजदूरों के श्रम को अधिक से अधिक निचोड़कर कर हासिल की जाती है। इसे और बढ़ाने के लिए महंगाई के रूप में मजदूरी लूटी जाती है। देश के भीतर ही एक हिस्से को कुचलकर विकास का असली लक्ष्य क्या हासिल किया जा सकता है?