Saturday, June 12, 2010

मुद्दा गरीबी नहीं, बराबरी है मेरे दोस्त

प्रणव एन.
आजादी के बाद से देश ने क्या कम तरक्की की है? गरीब से गरीब गांव को देख लीजिए.. पहले वहां के सबसे गरीब परिवार का कितना बुरा हाल होता था, क्या आज भी उसका उतना ही बुरा हाल है? नहीं। गरीब घर की औरतें भी अब ब्लाउज जरूर पहनती हैं। उनके घर भी मेकअप का सस्ता ही सही, पर कुछ न कुछ सामान मिल ही जाएगा। निचले से निचले तबके के लोगों के हाथों में अब मोबाइल दिखने लगा है। यह सब क्या ऐसे ही हो गया? आप चिल्लाते रहें गरीबी और बेरोजगारी तो उससे विकास की धारा रुक नहीं जाती है और न ही इसके फायदे रातो-रात मिट जाते हैं। आप आंखें बंद कर लें तो उससे आंखों के सामने की वास्तविकता क्या मिट जाएगी?

अमूमन यही तर्क दिए जाते हैं वामपंथी सोच रखने वाले लोगों को चुप कराने के लिए। इस तरह का तर्क देने वालों की नजर से देखें तो वामपंथी सोच वाले व्यक्ति भावुकतापूर्ण मूर्खता का शिकार होते हैं जो गरीबी, बेरोजगारी, लाचारी, बेबसी जैसे शब्दों के जाल में फंस जाते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ये सारी बीमारियां दूर करने का एकमात्र इलाज है तेज विकास जो पूंजीवाद के पथ पर तेज गति से चलने से ही संभव है। नतीजा यह होता है कि ये (वामपंथी सोच रखने वाले) पूंजीवादी विकास का ही विरोध करने लगते हैं और जिन बीमारियों से इन्हें चिढ़ है उन्हीं बीमारियों को दूर करने की प्रक्रिया रुक जाती है। सो, ऐसे लोग वामपंथी सोच वाले लोगों से सहानुभूति रखते हुए दिखते हैं। यह अलग बात है कि बहस शुरू होते ही इनकी सहानुभूति चिढ़ में बदलने लगती है। पर, उस पर चर्चा फिर कभी। पहले उनके इस तर्क पर विचार करें.

इन लोगों के तर्क पर ढंग से विचार करने के लिए पहले यह देखना जरूरी है कि आखिर वे इस तरह का तर्क रख क्यों रहे हैं। देश ने कितना विकास किया है, यह बताने की जरूरत उन्हें इसलिए पड़ रही है क्योंकि वे यह समझते हैं कि वामपंथी सोच रखने का मतलब है गरीबों, बेरोजगारों, लाचारों की बात करना। इसीलिए वे यह साबित करना चाहते हैं कि गरीबों का भी कल्याण इसी व्यवस्था में हो रहा है और होगा। इसीलिए वे यह कहते हैं कि गरीब परिवारों की महिलाएं अब ब्लाउज पहनने लगी हैं।

बहरहाल, उनका तर्क कितना सही है और तथ्यों की कसौटी पर कहां तक खरा उतरता है, यह देखना जरूरी नहीं है. कारण यह कि उनका नजरिया ही दोषपूर्ण है।

इसमें दो राय नहीं कि वामपंथ गरीबों, वंचितों, दमितों, शोषितों की बात करता है, लेकिन वह उनके लिए दया, सहानुभूति, करुणा की भीख नहीं मांगता, वह इंसाफ की बात करता है। मुद्दा सिर्फ गरीबी, लाचारी और बेबसी नहीं, बल्कि ये सब पैदा करने और बनाए रखने वाली व्यवस्था है। गरीबों के आगे एनजीओ के माध्यम से या अन्य कथित कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से कुछ टुकड़े फेंककर यह दावा करना कि विकास का लाभ समूची आबादी तक पहुंच रहा है, इस शोषणकारी, विषमतामूलक व्यवस्था के पैरोकारों को भले संतुष्ट कर दे, वामपंथी सोच से प्रभावित लोगों को कतई भरमा नहीं सकता।

पूंजीवादी विचारकों का यह दावा नया नहीं कि समाज के किसी भी हिस्से में अगर अमीरी आती है तो वह वहीं तक सीमित नहीं रह सकती, वह धीरे-धीरे नीचे आती है और समाज के निचले तबके भी देर-सबेर और कमोबेश उससे लाभान्वित होते ही हैं। इसे 'ट्रिकल डाउन थ्योरी' कहा जाता है। वामपंथ की मूल आपत्ति इसी 'देर-सबेर' और 'कमोबेश' को स्वीकार्य मानने वाले नजरिए पर है। समाज के एक छोटे से हिस्से को तो बेशुमार दौलत का स्वामी मान लिया जाए और अन्य हिस्सों को टकटकी लगाने के लिए छोड़ दिया जाए कि उस हिस्से की दया, सहानुभूति, जरूरत और अय्याशियों के हिसाब से यह अंदाजा लगाता रहे कि उसे उस दौलत का कौन सा और कितना हिस्सा कब तक नसीब होगा।

यह निर्विवाद तथ्य है कि पूंजीवाद विषमतामूलक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के जारी रहते आप गरीबी दूर नहीं कर सकते। इसके खिलाफ तर्क देने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि गरीबी मूलत: तुलनात्मक अवधारणा है। झोपड़े में रहने वाला एक व्यक्ति फुटपाथ पर सोने वाले व्यक्ति के मुकाबले अमीर और फ्लैट में रहने वाले व्यक्ति के मुकाबले गरीब हो सकता है।

इसलिए गरीबी कितनी दूर या कम हुई, इस सवाल पर उपरोक्त विचार को चुनौती देने का अपना अधिकार सुरक्षित रखते हुए भी हम यहां कहना चाहते हैं कि हमारी मूल प्रस्थापना से उसका कोई लेना-देना नहीं है। मूल सवाल गरीबी या अमीरी का नहीं है, मूल सवाल है बराबरी का। यह मानने का कि इस दुनिया में पैदा होने वाले सभी इंसान रंग, रूप, कद, काठी, लिंग, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, शारीरिक और मानसिक क्षमता आदि के लिहाज से चाहे जितने भी अलग-अलग हों - इस रूप में समान हैं कि एक इंसान की जिंदगी और उसका सुख-दुख उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी भी दूसरे इंसान की जिंदगी और उसका सुख-दुख।

यह बराबरी तब तक संभव ही नहीं जब तक आप उत्पादन के साधनों पर कुछ लोगों का मालिकाना हक मानते हुए बाकी लोगों की जिंदगी उनके हवाले करते रहेंगे। यह बराबरी तब तक संभव नहीं है जब तक आप कुछ लोगों की अधिक से अधिक पाने की हवस को मान्य करते हुए उनके लाभ को करोड़ो दूसरे लोगों की जरूरत से ज्यादा अहमियत देते रहेंगे। यह बराबरी तब तक संभव नहीं है जब तक आप इंसानों के जीने के हक से लेकर उनकी तमाम जरूरतों तक के साथ उसकी क्रय शक्ति की शर्त जोड़ देंगे। एक वाक्य में कहा जाय तो यह बराबरी तक तक संभव नहीं है जब तक आप पूंजीवाद की सड़ती हुई लाश को मरघट तक नहीं पहुंचा देंगे।

नारकीय जीवन से जूझ रही है श्रमिकों की आधी दुनिया


(लेखक जेएनयू से जुड़े हुए हैं और यह उनका लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छप चुका है। उनकी सहमति पर इस लेख को यहां दिया जा रहा है।)
संदीप कुमार मील
एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती है, लेकिन वह विश्व की केवल 10 प्रतिशत आय अर्जित करती हैं और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपत्ति की मालकिन हैं। भारतीय संदर्भ में महिला श्रम या श्रम में महिलाओं की भागीदारी पर बात करते समय पिछले कुछ वर्षो में तीन विषेष तथ्य सामनें आतें है। एक तथ्य है कि महिलाओं की श्रम शक्ति में बढ़ती भागीदारी, घरेलू कामों में महिलाओं की बदलती भूमिकाएं और शादीशुदा होने पर उनकी पुनरुत्पादन की भूमिका का नौकरी और काम की जरूरतों पर प्रतिकूल प्रभाव। जब हम महिला आरक्षण और महिला सशक्तिकरण की बात करतें है तब यह जरूरी है कि समाज में महिलाओं के श्रम और उसकी स्थिति का आकलन करें। भारत में ज्यादातर औरतें (ग्रामीण औरतों का लगभग 85 प्रतिशत) किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ी हुई है, लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौतों द्वारा बीजों की सुरक्षा, खाद्य प्रसंस्करण आदि का अधिकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास जाने से कृषि क्षेत्र में सलंग्न महिला श्रमिकों पर प्रतिकूल असर पड़ा है।
कृषि पर पिछले दशकों में आए संकट की वजह से कृषि से हुए परिवारों और खास तौर से ग्रामीण महिलाओं की स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई है। हालांकि औरतों की उत्पादक गतिविधियों में हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन इन गतिविधियों को मापने के सटीक तरीके नहीं होने के कारण महिलाओं के राष्ट्रीय आय में योगदान को ठीक से समझ पाना मुश्किल है। उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (2005) योजना के तहत एकल परिवार और घर या गृहस्थी की परिभाषा में ऐसे एक सदस्यीय परिवारों को शामिल नहीं किया गया है जिनकी मुखिया औरत हो।
इसलिए एकल परिवार की परिभाषा में औरतों को निर्भरता की श्रेणी में रखकर पुरुष प्रधान समाज की पितृसत्तात्मक धारणा को ही आगे बढ़ाया गया है। ऐसे बहुत से उदाहरण है जिनमें औरतों के उत्पादन की गणना राष्ट्रीय आय में नहीं होती। घरेलू कामगारों की स्थिति और भी भयानक है क्योंकि समाज में घरेलू काम को काम माना ही नहीं जाता है, चाहे वो अपने घर पर हो या दूसरे के घर पर। श्रम विभाजन के तहत घरेलू महिला कामगारों को हेय दृष्टि से देखा जाता है जिनके लिए सामाजिक सुरक्षा का कोई उचित प्रावधान नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने 2008 में असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून बनाया था मगर अभी तक लागू नहीं हो सका है। घरेलू महिला कामगारों और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के साथ हिंसा और यौन शोषण के मामलों लगातार बढ़ोतरी हो रही है। एक श्रमिक के रूप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनकी श्रम कानूनों में कोई चर्चा नहीं है।

अगर एक महिला निर्माण कार्य में अपने पति के साथ काम करती है तो उसका वेतन भी पति को ही मिल जाता है, हो सकता है कि वो पति उन पैसों को शराब में बरबाद भी कर दे तो भी महिला कुछ नहीं कर सकती। इसी कारण महिलाएं खुद को सशक्त नहीं बना पाती हैं। असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक को श्रमिक ही नहीं माना गया है जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। अकेले राजस्थान में यह संख्या लगभग दो लाख सात हजार के आसपास है। इस क्षेत्र में महिलाओं की कमजोर स्थिति के अनेक कारण है, जैसे कि हमारी सामाजिक व्यवस्था का ढांचा ही ऐसा है जिसमें लिंग के आधार पर भेदभाव होता है। इसके अलावा महिलाओं के लिए काम के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण अनेक प्रकार से मालिकों की डांट सुननी पड़ती है। जब एक परिवार पलायन करके गांव से शहर आता है तो मात्र पुरुष की मजदूरी से घर का काम नहीं चलता है इसीलिए महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है जिनका पहले से उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। जितने भी झुककर करने वाले काम हैं उनमें पुरूषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा है। अगर संगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की स्थिति का विश्लेषण करें तो वहां पर सामाजिक सुरक्षा के कुछ कानून तो बने हुए हंै, लेकिन कानून को लागू करने वाली मशीनरी की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी है कि महिलाओं को उनका हक और न्याय नहीं मिल पाता है। बहुत से हिंसा और यौन शोषण के मामलों में इसलिए न्याय नहीं मिल पाता है, क्योंकि जो संस्थाएं इन मामलों की जांच के लिए बनाई जाती हैं उनकी कार्यप्रणाली बहुत ही मंद है।

संगठित क्षेत्र में जो महिलाएं कारखानों में काम करती है उनके लिए न तो अलग से टायलेट की व्यवस्था है और न ही उनके बच्चों को सुलाने की कोई व्यवस्था जिनके कारण महिला कामगारों को बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मजदूरी कम मिलती है और काम ज्यादा करना पड़ता है। मजदूरी के अलावा महिलाओं पर परिवार की देखभाल और घर की व्यवस्था की जिम्मेदारी होने के कारण वह अनेक शारीरिक बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं। शहर की महिलाओं के रोजगार की बात करें तो उनके द्वारा घर पर रहकर किए जाने वाले कामों में वृद्धि हुई है जो पूर्णतया ठेकेदारी प्रथा पर निर्भर है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेटवर्क सभी शहरों में फैला हुआ है जिनके माध्यम से अनेक प्रकार के कार्य महिलाओं को घर पर करने के लिए दिए जाते हैं। इस तरह के कामों में एक सुविधा तो है कि महिलाओं को घर से बाहर नहीं जाना पड़ता है मगर बीच में दलालों की कड़ी इतनी लंबी होती है कि महिलाओं को उनके काम का उचित प्रतिफल नहीं मिलता है। आम महिला श्रमिक आज भी सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, कारगार व्यवस्था, अवकाश, मातृत्व लाभ, विधवा गुजरा भत्ता और कानूनी सहायता आदि से वंचित हैं। विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है।
विकास का अर्थ और उद्देश्य केवल भौतिक उत्पादन में वृद्धि ही नहीं है, बल्कि लोगों के जीवनयापन की स्थितियों को बेहतर बनाना है। इसलिए विकास के माडल में महिलाओं के श्रम को भी भैतिक लागत में शामिल किया जाए, जो परिवार के खर्च कम करने में योगदान करता है।

Friday, June 11, 2010

मजदूरी मांगने पर हरियाणा में ५० बिहारी मजदूरों को बनाया बंधक

- बिहार के नवादा जिले के हैं मजदूर, 25 महिलाएं भी
-भट्ठे पर काम कर रहे इन मजदूर परिवारों को अक्तूबर २००९ से नहीं मिली मजदूरी,

चंडीगढ़, ११ जून, शुक्रवार
हरियाणा के झझर के ईंट भट्ठे पर बंधक बनाकर रखे गए बिहार के नवादा जिले के 50 से अधिक मजदूरों को मुक्त करा लिया गया है। हरियाणा मुख्यमंत्री सचिवालय के अधिकारियों ने इस मामले में हस्तक्षेप किया तब जाकर मजदूरों को मुक्त कराया जा सका। ये मजदूर अक्तूबर 2009 में ही मजदूरी की आस में हरियाणा गए थे। नेवादा के अकबरपुर प्रखंड में महादलित विकास मंच से जुड़े कार्यकर्ता अशोक राजवंशी को बंधक बने मजदूरों में से एक ने इस बारे में सूचना दी थी। राजवंशी की पहल पर महादलित आयोग के सदस्य बबन रावत ने हरियाणा में मुख्यमंत्री सचिवालय से बात की थी।

मजदूर हरियाणा में बबलू यादव नाम के ईंट भट्ठा मालिक के यहां काम करते थे। मजदूरी की राशि चिमनी मालिक यह कहकर नहीं देता था कि घर जाते समय सबको पैसा दिया जाएगा लेकिन, गत मार्च में जब मजदूरों ने अपना पैसा मांगा तो उनकी पिटाई की गई और उन्हें बंधक बना लिया गया। बाद में झझर के एसडीएम ने सभी मजदूरों को प्रशासनिक सुरक्षा में दिल्ली पहुंचाया, जहां से वे पटना रवाना हो गए। हालांकि इस बात की अभी कोई जानकारी नहीं मिल सकी है कि उनकी मजदूरी मिली की नहीं।

पंजाब में मजदूरी बढ़ाने पर भी नहीं मिल रहे यूपी-बिहार के खेतिहर मजदूर

जालंधर, बठिंडा, लुधियाना, ११ जून, बृहस्पतिवार

अनाज उत्पादन में नंवबर वन होने का खम ठोंकने वाले पंजाब की पूरी खेती यूपी बिहार के खेतिहर मजदूरों पर निर्भर है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दमन और उत्पीड़न से तंग आकर इस बार ये मजदूर पंजाब की ओर उस तेजी से रुख नहीं कर रहे हैं जिससे पंजाब के भूस्वामियों में धान की रोपाई को लेकर खलबली मच गई है। हालत यह है कि वे प्रवासी खेतिहर मजदूरों को आकर्षित करने के लिए अजीबो गरीब प्रस्ताव कर रहे हैं। मजदूरी बढ़ाने के साथ साथ ही भूस्वामियों के कारिंदे मजदूरों को शराब, मुर्गा और मोइबाइल फोन का लालच दे रहे हैं। मध्य जून से शुरू होने वाली धान की रोपाई का दारोमदार इन्हीं मजदूरों पर है।

इन कारिंदों ने पंजाब के मुख्य स्टेशनों पर ही डेरा डाल रखा है। जमींदार और उनके गुर्गे ट्रेन से उतरते ही मजदूरों को बढ़ी मजदूरी की अदायगी के साथ ही रहने की व्यवस्था का भरोसा देते नजर आ रहे हैं। हालांकि मजदूरों का आना शुरू हो गया है लेकिन इस बार पंजाब आने वाले मजदूरों की संख्या कम हैं। इसका कारण मनरेगा बताया जा रहा है लेकिन पंजाब में मजदूरों के साथ होने वाली ज्यादती को भी इसका जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

राज्य में इस साल 26 लाख हैक्टेयर भूमि में धान की रोपाई होनी है। इतने क्षेत्र में रोपाई के लिए 8 लाख मजदूरों की जरूरत है, लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए इतनी संख्या में श्रमिकों के आने की उम्मीद न के बराबर है। जिस गति से श्रमिक यहां पहुंच रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि पूरे बुआई सत्र के दौरान 50 हजार श्रमिकों का पहुंचना भी मुश्किल होगा। मजदूरों ने भी अपनी मजदूरी बढ़ा दी है। पिछले वर्ष प्रति एकड़ 1200 से 1800 रुपये लेने वाले मजदूरों ने इस वर्ष दो हजार से ढाई हजार रुपये रेट कर दिया है। इसके अतिरिक्त समूह के लिए प्रति एकड़ पांच किलो राशन, शराब और मुर्गे की मांग रखी है। संगरूर के कुछ जमींदार तो साथ में मोबाइल भी ऑफर कर रहे हैं। मजबूरी में मशीन का सहारा लुधियाना : मजदूरों की किल्लत को देखते हुए किसान रोपाई के लिए मशीनों का सहारा लेने लगे हैं। धान की बुआई के लिए पीएयू ने 200 पैडी ट्रांस्प्लांटर किसानों को किराए पर दिए है। कई किसानों ने तो 2 लाख से दस लाख तक के पैडी टांस्प्लांटर भी खरीद रखे हैं।