Tuesday, May 24, 2011

अन्ना का आन्दोलन और भ्रष्टाचार

पिछले कुछ हफ्तों में हमने आँखें खोल देेने वाले कई ऐसे उदाहरण देखे कि पूरी तरह भ्रष्ट कोई सरकार कैसे आज्ञाकारी मीडिया को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करता है। यहाँ दिए जा रहे विश्लेषण के मार्फत हम देखेंगे कि कैसे अन्ना हजारे को मनमोहन सिंह-चिदम्बरम सरकार ने गत मार्च में और अप्रैल 2०11 की शुरुआत में 'बिजूखेÓ (डमी) की तरह इस्तेमाल किया। यह अनुमान करना, काफी जल्दबाजी होगी कि अन्ना हजारे घोटाला, सरकार में उच्च स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार के नित-नए खुलासे से पैदा हुए जनाक्रोश को मोडऩे के अपने मकसद को हसिल करने में कितने दिन तक सफल रहता है। 'अन्ना हजारे ड्रामाÓ के साथ सोचा गया था कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन, अप्रैल के दूसरे हफ्ते में ही इस 'अराजनीतिक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताÓ ने खून से सने नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर, उससे अपनी नजदीकियों की गंध दे दी। और पागलाई हुई मीडिया की गिरफ्त में आए हुए कुछ अच्छी नीयत के लोगों को इससे थोड़ी सी निराशा हुई होगी या कम से कम इस अभियान के बारे में कुछ और सोचने को मजबूर हुए होंगे।
1991 में नवउदारवादी सरकार के आगमन से पहले भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार अभियान व्यावसायिक मीडिया के लिए एक नियमित परियोजना हुआ करती थी। इस तरह की रिपोर्टिंग में एक चलताऊ फार्मूला, जिसमें व्यावसायिक संघ का एक हीरो हुआ करता था, जो राज्य आबकारी विभाग के सब इन्स्पेक्टर या रेलवे सुरक्षा बल या किसी नगर निगम के कर्मचारी की रिश्वतखोरी को रंगेहाथ पकडऩे में सफलता हासिल कर लेता था। ऐसे समाचार कथाओं के कानफाड़ू शोर और असली राजनीतिक भ्रष्टाचार के बारे में जो कुछ, हर कोई जानता था, उस सबको मिलाकर मीडिया ने नवउदारतावादी परिवर्तन के लिए एक माहौल तैयार किया। इस सब में लाइसेंस राज को ही विकास में एकमात्र अवरोध के रूप में दिखाया जाता था, जो सारे भ्रष्टाचार का जनक था।
लेकिन उस सरकार द्वारा जिसमें मनमोहन सिंह वित्तमन्त्री हुआ करते थे और चिदम्बरम वाणिज्य मन्त्री हुआ करते थे, ''नियम-कानूनों को खत्म किये जाने और ''आर्थिक आजादीÓÓ के आने की प्रक्रिया की शुरुआत होते ही, हमें भ्रष्टाचार के उस असली 'दैत्यÓ का दर्शन हुआ जो पर्दे के पीछे सही मौके का इंतजार कर रहा था। नव उदारवादी परिवर्तन का शुरुआती दौर स्टॉक मार्केट में आए अभूतपूर्व उछाल का भी दौर था। और तबसे हमने बारम्बार व्यावसायिक मीडिया को इसका गुणगान करते देखा है कि शेयर की कीमतों में आई अचानक तेजी, कैसे उभरती हुई नवउदारवादी नीतियों की सफलता का प्रमाण है। 'सुपर शेयर दलालÓ हर्षद मेहता को रातों-रात 'बिग बुलÓ के तौर पर एक मीडिया स्टार बनाना इसी कहानी की एक शुरुआती कड़ी है।
लेकिन जल्द ही, जैसा कि हर उछाल के साथ होता है, बुलबुला फूट गया। 1992 की गर्मियों में यह बात जगजाहिर हो गई कि शेयर की कीमतों में आई इस तेजी को हर्षद मेहता ने अपनी तिकड़मबाजी से अंजाम दिया है। यह एक आसान तिकड़म था। प्रतिभूतियों को एक निश्चित अवधि (रिपो•ा) के बाद खरीदने या बेचने का समझौता, एक बैंक के साथ दूसरे बैंक के सौदे में एक प्रमुख विकल्प होता है। प्राय: ऐसा सौदा बिचौलिए दलालों के माध्यम से किया जाता है। इसमें प्रतिभूतियों का वास्तव में हस्तानान्तरण नहीं होता बल्कि, बैंक रसीद के माध्यम से खरीद (या ऋण) के मामलों में यह सुनिश्चित करता है कि प्रतिभूतियों का वास्तव में अस्तित्व है। हर्षद मेहता ने कुछ ऐसे बैंकों को खोज निकाला जो एक शुल्क के भुगतान पर ऐसी प्रतिभूतियों के लिए बैंक रसीद जारी करने के लिए तैयार थे जिनका अस्तित्व ही नहीं था। इसके बाद इन प्रतिभूतियों में निवेश किया गया और चूँकि, इसकी वजह से कीमतें ऊपर जा रही थीं, अत: उनकी पुनर्खरीद भी आसान थी और इस तरह हर्षद मेहता और उसके सहयोगियों के पास बेहिसाब पैसा आ गया। जब इस घोटाले का भण्डाफोड़ हुआ तो कीमतें मुँह के बल गिर गईं और इसके अनेक शिकारों में से विजया बैंक का अध्यक्ष भी था, जिसने खुदकुशी कर ली। यह अकेला घोटाला आने वाले समय का संकेतक था और निश्चित तौर पर उस एक घोटाले में इतना पैसा बर्बाद हुआ जो पूरे एक दशक या उससे अधिक समय में लाइसेंस राज के सब इन्स्पेक्टरों के द्वारा घूस में नहीं लिया जा सकता था। बाद में पता चला कि हर्षद मेहता गैंग में निवेश करने वालों में स्वयं तत्कालीन वाणिज्य मन्त्री चिदम्बरम, अपने पत्नी के नाम पर किए गए निवेश के माध्यम से शामिल थे। और बाद में यह भी सामने आया कि इन शेयरों को ''प्रमोटर कीमतÓÓ पर यानी बाजार मूल्य से बहुत ज्यादा नीचे दामों में खरीदा गया था। चिदम्बरम को बेआबरू होकर इस्तीफा देना पड़ा लेकिन इसकी कोई सीबीआई जाँच नहीं हुई। जब सीबीआई जाँच के लिए याचिका दाखिल की गई तो भाजपा के तत्कालीन राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने चिदम्बरम की कामयाबी के साथ पैरवी की। 'चिदम्बरमोंÓ और 'जेतलियोंÓ के बीच कभी इस बारे में कोई राजनीतिक मतभेद नहीं रहा है कि क्या सही और क्या गलत है।
हर्षद मेहता घोटाला आने वाले दशकों के नवउदारवादी भ्रष्टाचार के लिए एक 'आदर्शÓ साबित हुआ। एक वर्ष पूर्व शशि थरूर को भी बेइज्जत होकर विदेश राज्य मन्त्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उसने एक ''मित्रÓÓ के नाम पर बाजार मूल्य से बहुत कम कीमतों पर शेयर हासिल किए थे और चिदम्बर के साथ घटी पूर्ववर्ती घटना की ही तरह इस घोटाले में किसी तरह की जाँच की इजाजत नहीं दी गई।
इन तमाम सालों में लगातार बढ़ रहे मुक्त बाजार चोरियों और घोटालों के बीच व्यावसायिक मीडिया और सरकार ने लोगों का ध्यान बँटाने के लिए जनसम्पर्क के तरीकों का विकास कर लिया। जैसा कि चिदम्बरम के साथ हुआ और सम्भवत: उतने ही घमण्डी अमरीका प्रशिक्षित थरूर के साथ भी हुआ कि उन्हें घोटाले के चरम बिन्दु पर ही इस्तीफा देना पड़ा, जिससे कि यह बात सुनिश्चित की जा सके कि इन कारनामों जल्दी ही भुला दिया जाएगा, वक्त गुजर जाएगा और ये महानुभाव मुक्त बाजार का गुणगान करने के लिए पुन: अवतरित होंगे। साथ ही व्यावसायिक मीडिया इस बात को सुनिश्चित करेगी कि बुरी यादों को ताजा नहीं किया जाएगा।
किन्तु इस सबसे अलग, लेकिन उपयोगी तरीका था, पुराने ढंग के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का, जोकि प्राय: छोटे व्यवसायियों को परेशान करने वाले छुटभैयों के खिलाफ केन्द्रित होता था। यह एक अर्थ में एक सांसारिक संयोग है, लेकिन दूसरे अर्थों में नहीं, क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की शुरुआत अन्ना हजारे द्वारा महाराष्ट्र में 1991 में की गई। एक सेवानिवृत्त सैनिक हजारे इमरजेंसी के दौरान ग्रामीण महाराष्ट्र में प्रकट हुए और शराब विरोधी जुझारू दस्तों का गठन किया, जो फसाद करने और शराबियों और शराब बेचने वालों को कोड़े लगाने का काम करता था। इस गैर राजनीतिक गांधीवादी ने अपनी गतिविधियों को एनजीओ के पैसे से 'आदर्श ग्रामÓ बनाने और इस तरह से बढ़ते हुए ग्रामीण असंतोष का अराजनीतिक समाधान प्रस्तुत करने की ओर आगे बढ़ा। आजमाए हुए नुस्खे को अमल में लाते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने जंगल विभाग के सब इन्सपेक्टरों जैसे छुटभैये लोगों को अपना निशाना बनाया व प्रेस का ध्यान अपनी ओर खींचने की क्षमता को और माँजता गया।
आकर्षण में बने रहने की बेचैन चाहत के वशीभूत हजारे ने आमरण अनशन की घोषणा करने का दाँवपेंच विकसित किया, जो हर बार कुछ ही दिनों बाद ही 'शानदार सफलताÓ के दावे वाले प्रेस वक्तव्य के साथ समाप्त हो जाती थी। 2००3 में एक आमरण अनशन महाराष्ट्र के स्थानीय राजनेताओं के खिलाफ जाँच की घोषणा के साथ समाप्त हुआ। 2००6 में सूचना अधिकार कानून 2००5 में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ एक और आमरण अनशन एक प्रेस विज्ञप्ति के साथ उस समय समाप्त हो गया, जब प्रस्तावित संशोधन में फेरबदल का आश्वासन मिला।
2०11 की शुरुआत से ही मनमोहन सरकार एक के बाद एक अभूतपूर्व घोटालों के पर्दाफाश से परेशान रही है। 2जी घोटाला के चलते केन्द्रीय संचार मन्त्री अन्दिमुत्तु राजा को इस्तीफा देना और जेल जाना पड़ा। ऐसा समझा जाता है कि इसमें उन्होंने सरकार को हजारों करोड़ रुपये का चूना लगाया था। उसके बाद हजारे ने, जो एक अरसे से जनता की निगाहों में नहीं आ पाए थे, लोकपाल विधेयक न लाए जाने की स्थिति में आमरण अनशन की घोषणा की। लेकिन और दिलचस्प समाचारों जैसे, जपान के भूकम्प, अरब विद्रोह और क्रिकेट मैच वगैरह के चलते उस पर किसी का खास ध्यान नहीं गया।
इसी बीच 17 मार्च को 'हिंदूÓ ने जब अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गए गुप्त केबलों का पर्दाफाश करना शुरू किया तो यह पता चला कि लोकसभा में परमाणु संधि पर विश्वास मत हासिल करने के ठीक पहले 17 जुलाई 2००8 को कांग्रेसी नेता सतीश शर्मा के एक निकट सहयोगी ने अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी को रुपयों से भरे दो सूटकेस दिखाए थे। जो कि पार्टी द्वारा सांसदों को खरीदने के लिए जुटाए गए 5० से 6० करोड़ रुपये के फण्ड का एक हिस्सा भर था। यह ऐसा घोटाला था जिसमें सरकार ऊपर से नीचे तक शामिल थी।
एक सीमा का अतिक्रमण हो चुका था। हालांकि मनमोहन सिंह ने इसे सिरे से नकार दिया, लेकिन इस पर विश्वास करने की कोई वजह नहीं थी कि क्यों अमेरिकी दूतावास का एक कर्मचारी अपने ही गृह मन्त्रालय को गलत सूचना देगा।
मनमोहन सिंह और चिदम्बरम सरकार बेनकाब हो चुकी थी। हर्षद मेहता के शुरुआती दिनों से लेकर लगातार चोरियों और भ्रष्टाचार के एक सिलसिले ने, जिसकी चरम परिणति अकल्पनीय 2जी घोटाले के रूप में हुई, इसने भारतीय जनतन्त्र में जो कुछ भी 'शेषÓ था, उसे भी खोखला कर दिया, लेकिन उनका शासन अभी भी बदस्तूर जारी था। व्यावसायिक मीडिया अभी भी उनकी सेवा में मौजूद थी और अकूत धन की ताकत के बल पर उन्हें बेहतरीन जनसम्पर्क विशेषज्ञों की सुविधा उपलब्ध थी, जिन्हें मुक्त बाजार से किराए पर आसानी से खरीदा जा सकता था।
अत: अब वह घटना घटी जिसे हम ''अन्ना हजारे घोटालाÓÓ कह सकते हैं। यदि हम 14 से 22 मार्च 2०11 के बीच भारतीय स्रोतों तक सीमित गूगल न्यूज को खंगालें तो हमें सिर्फ तीन ऐसे लेख मिलते हैं जिसमें अन्ना हजारे का उल्लेख किया गया था। बुधवार 23 मार्च को अन्ना हजारे ने यह घोषणा की कि प्रधानमन्त्री कार्यालय से उसी दिन उनके पास टेलीफोन आया है। बकौल अन्ना, प्रधानमन्त्री कार्यालय का कहना था कि वे भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक पर बातचीत को तैयार हैं। 24 मार्च से 31 मार्च के बीच भारतीय स्रोतों तक सीमित गूगल न्यूज को खंगालने पर कुल 4,281 ऐसे लेख मिले, जिनमें अन्ना के नाम का उल्लेख था और अप्रैल में अभूतपूर्व मीडिया गहमागहमी के बीच नाटक का अंतिम अंक खेला गया, जिसमें कुछ दिनों का आमरण अनशन था, सोनिया गांधी और विभिन्न बॉलीवुड की हस्तियों द्वारा अपीलों पर अपीलें थीं और फिर सम्भवत: पटकथानुसार सरकार ने ''घुटने टेकÓÓ दिये और एक समिति बनाने तथा भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने पर सहमत हो गई।
तो, हमें अपनी बात बहुत स्पष्टता से कह देनी चाहिए कि व्यवस्था ने अन्ना हजारे के ''आमरण अनशनÓÓ से पैदा हुए जनदबाव के आगे घुटने नहीं टेके। इस ''गांधीवादी गैर राजनीतिकÓÓ, ''नागरिक समाजÓÓ के स्वयम्भू प्रवक्ता के आमरण अनशन पर तबतक कोई ध्यान नहीं दे रहा था, जबतक कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसको फोन नहीं किया। व्यवस्था ने ही प्रचार का यह तूफान खड़ा किया, जिससे कि उसके आगे घुटना टेकने का प्रहसन किया जा सके।
इस दौर में बिना प्रभावित हुए मीडिया का सामना करना, बहुत ही मुश्किल था। लेकिन बेहतर से बेहतर ढंग से संगठित घोटाले भी आखिरकार बिखर ही जाते हैं और इसके बिखराव की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। यह कल्पना करना भी बहुत ही आसान है कि जो अच्छे नीयत वाले लोग, जो इस मीडिया तूफान के चलते इसके प्रभाव में आए, मसलन, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश, अब अन्ना के नरेन्द्र मोदी जयगान के बाद बहुत सहज महसूस नहीं कर रहे हैं।
चलते-चलते कुछ बुनियादी बातों का जिक्र कर लेतें हैं। मनमोहन सिंह, चिदम्बर और उनके अमेरिकी आकाओं की इस दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है गरीब होना, खासकर, अगर आप अमीरों के शासन की मुखालफत करें। इस मुक्त बाजार में हर कुछ बिकाऊ है, जिसमें सांसदों के वोट हैं, मीडिया है, केन्द्रीय मन्त्री हैं, ''न्यायÓÓ, ''जनतन्त्रÓÓ, ''सिविल सोसायटीÓÓ है और सम्भवत: ''गांधीवादी गैर राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताÓÓ भी। अन्ना हजारे का यह स्वांग इसलिए चल पाया कि अभी भी बहुत सारे ऐसे भले और इमानदार लोग हैं, जो इस बात पर यकीन करना चाहते हैं कि अभी भी इस व्यवस्था को आयोगों और विधेयकों द्वारा बदला जा सकता है। हालांकि सारे प्रमाण इसके खिलाफ हैं। हमारा सुझाव यही है कि हम उठ खड़े हों और अपनी चेतना को प्रधानमन्त्री कार्यालय के जनसम्पर्क विशारदों और मीडिया द्वारा प्रभावित होने से बचाएं।

श्रमजीवी पहल पत्रिका से साभार

फैक्टरी में ताला मारकर चला जाता था मालिक

जनार्दन

राष्ट्रीय राजधानी में, नरेन्द्र सिंघल उद्योग नगर, पीरागढ़ी स्थित एच-9 में 'पिंकी पोर्च प्रइवेट लिमिटेडÓ नामक जूता चप्पल बनाने वाली कम्पनी है। कम्पनी के बेसमेंट में आग लगती है और दस मजदूर जिन्दा जलकर मर जाते हैं।
आग लगने के बाद मजदूरों में अफरा-तफरी मच जाती है, वे इधर ऊधर भागने लगते हैं लेकिन कोई भी दरवाजा उन्हें खुला नहीं मिलता। फैक्टरी गेट पर भी ताला लगा होता है। बाहर निकलने या छत पर जाने के सारे दरवाजे बन्द होते हैं। मजदूर अपने परिजनों से फोन पर यह बताते हंै कि मौत नजदीक है और तत्काल मदद की गुहार लगाते हैं। परिजन पुलिस को सूचना देकर फैक्टरी के लिए निकल पड़ते हैं। इस दौरान फंसे मजदूरों से फोन पर उनका संवाद कायम रहता। लेकिन फैक्टरी तक पहुँचते-पहुँचते फोन से दूसरी तरफ की आवाज आनी बन्द हो जाती है और सिर्फ रिंग बजती रहती है।
ढाई घण्टे बाद जब फायर बिग्रेड का दस्ता वहाँ पहुँता है तो वे मजदूरों को बचाने के बजाय आग बुझाना ज्यादा जरूरी समझता है। और पचास गाडिय़ाँ मिलकर 24 घण्टे तक आग बुझाती रहती हैं। इस दौरान मजदूरों के परिजन खिड़की तोड़कर अंदर जाने की कोशिश करते हैं तो पुलिस अपना रंग दिखाते हुए उन लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटना शुरू कर देती है। जबकि फैक्टरी मालिक नरेन्द्र सिंघल पर 'कठोर कार्रवाईÓ करते हुए सिर्फ लापरवाही का मामला दर्ज करती है।
शाम को पहुँचती हैं मुख्यमन्त्री शीलादीक्षित और एक शब्द बोलती हैं 'न्यायिक जाँचÓ। हालॉंकि मुख्यमन्त्री महोदया के साथ आए उद्योग मन्त्री रमाकान्त गोस्वामी ने एक-दो शब्द ज्यादा बोला कि वे सभी विभागों के अधिकारियों की संयुक्त बैठक बुलाकर कोई नीति जरूर बनाएंगे और यह कि मरे हुओं को मुआवजा तो 'इएसआइर्Ó देगी।
एक तरफ है फायर ब्रिगेड, पुलिस प्रशासन, पैक्टरी मालिक इनश्योरेन्स, मुख्यमन्त्री, न्यायिक जाँच आदि आदि, दूसरी तरफ है जली हुई लाशें, गायब मजदूर, रोते-बिलखते परिजन, सब कुछ आँखों में जज्ब किए वे आम जन जिन्होंने खिड़की तोड़कर मजदूरों की जान बचाने का साहस किया और बदले में लाठियाँ खायीं।
पीडि़तों के प्रत्यक्षदर्शी परिजनों का आरोप है कि फैक्टरी मालिक ताला लगाकर चला गया था। इसलिए, जब आग लगी तो मजदूर बाहर नहीं निकल सके। मजदूर अंदर से मदद की गुहार के लिए चिल्लाते रहे। अपने परिचितों को फोन कर मदद माँगते रहे, लेकिन फैक्टरी मालिक, पुलिस व अग्निशमन विभाग द्वारा बचाव कार्य में लापरवाही बरते जाने के चलते उन्हें नहीं बचाया जा सका। मियाँवाली नगर थाना पुलिस ने फैक्टरी मालिक के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर लिया है।
उस वक्त फैक्टरी में करीब एक दर्जन मजदूर काम कर रहे थे। आग लगते ही मजदूरों ने इसकी सूचना पुलिस व अग्निशमन विभाग को दी। लेकिन अग्निशमन और बचाव दल ने अंदर फंसे मजदूरों को बचाने को प्राथमिकता न देते हुए आग पर काबू पाने में ज्यादा 'तत्परताÓ दिखाई। अंदर आग भड़कने पर सभी मजदूर जान बचाकर दूसरी मंजिल पर पहुंचे, लेकिन छत पर जाने के रास्ते में बने दरवाजे पर ताला लगा था। ऐसे में मजदूर अपने परिजनों को फोन कर व बाहर खड़े लोगों को टार्च दिखाकर मदद की गुहार लगाने लगे।
घटना में मारे गए 24 वर्षीय मनोज के भाई राकेश ने बताया कि रात साढ़े नौ बजे तक उसकी फोन पर मनोज से बात होती रही। वह मदद की गुहार लगाता रहा। इस दौरान वहां जुटी भीड़ ने फैक्टरी के पीछे की खिड़की तोड़कर मजदूरों को बाहर निकालने का प्रयास किया, लेकिन फैक्टरी मालिक के इशारे पर पुलिस ने उन्हें रोक दिया। उल्टा भीड़ पर ही लाठियां बरसाकर तितर-बितर कर दिया।
प्रत्यक्षदर्शी संजीव गुप्ता ने बताया कि बेसमेंट से दूसरी मंजिल तक आग पहुंचने में ढाई से तीन घंटे का समय लगा था। यदि प्रशासन समझदारी से काम लेता और फैक्टरी की दीवार तोड़ देता तो कई मजदूरों को बचाया जा सकता था।
यह हाल है दुनिया में तेजी से बढ़ती अरबपतियों की संख्या और सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश की राष्ट्रीय राजधानी के नाक के भीतर का दृश्य!
श्रमजीवी पत्रिका से साभार

स्वर्ग की तलाश में नर्क जा पहुंचे भारतीय कामगार

नौकरी की तलाश में अमेरिका पहुंचे भारतीय कामगारों को वहां पहुंचने के बाद अहसास हुआ कि वाकई दुनिया का खूबसूरत नर्क क्या होता है। दुनिया भर में मानवाधिकारों और श्रम कानूनों पर एकमेव फतवा देने वाले अमेरिकी उद्योगपति किस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध की मानसिकता में हैं, उसकी बानगी इस रिपोर्ट में मिलती है-
अमेरिका में भारतीय कामगारों के उत्पीडऩ का मामला प्रकाश में आया है। संघीय अधिकारियों ने अलबामा स्थित एक समुद्री सेवा कम्पनी के खिलाफ पांच सौ भारतीय कर्मचारियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने के लिए मुकदमा दायर किया है। इन कर्मचारियों को घटिया आवास देने के अलावा खराब भोजन खाने के लिए मजबूर किया गया।
यूएस ईक्वल एम्प्लॉयमेंट अपॉरच्युनिटी कमीशन (ईईओसी) ने सिग्नल इंटरनेशनल नामक कम्पनी के खिलाफ मुकदमा दायर किया है। आयोग के अनुसार, इन भारतीय कामगारों को किसी दूसरी कम्पनी में काम करने के लिए बुलाया गया था, जो इस मामले का हिस्सा नहीं हैं। आयोग ने कहा कि इनसे अधिक पैसे लेने के बावजूद उन्हें खराब भोजन दिया गया। यही नहीं, उन्हें नीचा दिखाने के लिए नाम के बजाय नम्बर के हिसाब से बुलाया जाता था। जब दो कामगारों ने शिकायत करने की कोशिश की तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई।
आयोग ने कहा कि वर्ष २००४-०६ के बीच सैकड़ों भारतीयों ने सिग्नल के भर्तीकर्ताओं को २ हजार डॉलर (करीब नौ लाख रुपये) देकर, यात्रा वीजा हासिल की थी। कम्पनी ने उन्हें नौकरी और ग्रीन कार्ड दिलाने का वादा किया था। कई भारतीयों ने तो अपना घर बेचकर यह धन जुटाया था। साल २००६ के अन्त में इन्हें पता लगा कि उन्हें ग्रीन कार्ड की बजाय १० महीने का मेहमान कामगार वीजा दिया गया है।
श्रमजीवी पहल पत्रिका से साभार

यूनियन अधिकारों को छीने जाने के खिलाफ अमेरिकी कामगारों का संघर्ष



मध्य फ रवरी से लेकर मार्च के पूरे महीने संयुक्त राज्य अमेरिका के विनकानसिन राज्य में दसियों हजार मजदूरों-कर्मचारियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के यूनियनों के मोल-भाव करने के अधिकारों को खत्म किये जाने के खिलाफ आन्दोलन का रास्ता अख्तियार किया। दुनिया के हर देशों और राज्यों की सरकारों की तरह वहाँ की सरकार भी मजदूरों के हितों और अधिकारों में कटौती करने की राह पर है। विनकानसिन के गवर्नर स्काट वाकर ने यूनियनों की कमर तोड़ देने के लिए उनके मोल-भाव करने के अधिकार को खत्म करने का कदम उठाया था। इस हेतु, राज्य की रिपब्लिकन सरकार ने विगत १६ फरवरी को अनुमानित ३००,००० कामगारों के सामूहिक तौर पर मोल-भाव करने के अधिकार खत्म करने के लिए कानून बनाना चाहती थी, जिनमें अध्यापकों से लेकर कारागार रक्षकों तक विभिन्न किस्म के कर्मचारी शामिल हैं।
सरकार के इस कदम के खिलाफ दसियों हजार मजदूरों ने विनकानसिन की राजधानी मैडिसन शहर में गत मध्य फ रवरी से लेकर मार्च के लगभग पूरे महीने अपना जोरदार संघर्ष जारी रखा। आस-पास के राज्यों की सरकारों द्वारा ऐसे ही मजदूर विरोधी कदम उठाए जाने की आशांका में यह आन्दोलन, अन्य कई राज्यों जैसे ओहियो, न्यू जर्सी, पेनसिलवानिया, फ्लोरिडा, इण्डियाना, मिशीगन, आदि में भी फ ैल गया। चँूकि ओहियो राज्य की विधान सभा में भी मजदूरों के सामूहिक मोल-भाव के अधिकारों में कटौती करने का विधयेक प्रस्तुत किया जाने वाला था, अत: वहाँ के कामगार भी हजारों की संख्या में इस संघर्ष में शामिल हो गये।
इस आन्दोलन में अमेरिका का राजधानी वाशिंगटन में रिपब्लिकनों और डेमोक्रेटों के बीच बजट घाटे में कटौती को लेकर जारी लड़ाई का भी असर था। डेमोक्रेट भी बजट घाटे में कटौती चाहते हैं, लेकिन रिपब्लिक न यह चाहते हैं कि बजट घाटे में कटौती के नाम पर सामजिक कल्याण के कामों और कामगारों को मिलने वाली सुविधाओं में पूरी तहर कटौती कर दिया जाय। विनकानसिन के विधेयक के पारित हो जाने से पेन्शन और स्वास्थ्य बीमा के बारे में मोल-भाव करने का यूनियन का अधिकार छिन जाता। हालांकि, डेढ़ महीने के संघर्ष के बावजूद राज्य की रिपब्लिकन सरकार ने विधानसभा में अपनी बहुतम के दम पर इस विवादित विधेयक को पारित करवा लिया, लेकिन तबतक विनकानसिन के कामगारों के समर्थन की लहर पूरे अमेरिका में फ ैल चुकी थी। सार्वजनिक क्षेत्र के इन कामगारों के समर्थन में निजी क्षेत्र के मजदूरों ने भी एकजुटता में आन्दोलन किया और अमेरिका के दसियों राज्यों में कर्मचारियों और मजदूरों के जुझारू संघर्ष हुए।
ऐसा लगता है कि विनकासिन राज्य में मजदूरों के अधिकारों की कटौती की इस घटना में पूरे अमेरिका में कामगारों और कर्मचारियों को झकझोरकर जगा दिया है और उनक ी आपसी एकता को मजबूत कर दिया है। यह एक ऐसा लक्षण है जो न सिर्फ अमेरिका के मेहनतकशों के लिए अच्छा है, बल्कि पूरी दुनिया के श्रमजीवियों के लिए आशा और उत्साह का विषय है, क्योंकि पूरी दुनिया के पैमाने पर अतीत के संघर्षों से मजदूर वर्ग ने जो भी अधिकार और सहूलियतें हासिल की थीं, उनके एक के बाद एक छिने जाने का सिलसिला जारी है और उन्हें रोकने का एकही रास्ता है - एकताबद्घ संघर्ष!
श्रमजीवी पहल पत्रिका से साभार

यहाँ भी झोंक दिए गए ठेका मजदूर


प्राकृतिक आपदा से इंसानी समाज को पहले खतरा था और अब भी है। लेकिन आज विभिन्न देशों की सरकारें आर्थिक विकास के नाम पर प्रकृ ति से साथ जो छेड़-छाड़ कर रही हैं उसका जीता-जागता उदाहरण जापान में कुछ दिन पहले आयी सुनामी के बाद जो कुछ हुआ वह है। अब जब उन्होंने तेल जैसे उर्जा के पराम्परागत स्रोत का भरपुर शोषण कर लिया है तो वे बड़ी तेजी से दुनिया के देशों में नाभिकीय संयन्त्र स्थापित करने के दिशा में बढ़ रहे हैं। इसी के साथ-साथ दुनिया के एक बहुत बड़ी आबादी नाभिकीय विकरण के खतरे के नीचे आती जा रही है। दिनाँक ११ अपै्रल २०११ को 'दि हिन्दुÓ में प्रकाशित हिरोको ताबुची की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है ११ मार्च २०११ को जब सुनामी ने जापान के फ ुकु शिमा दाई-ची न्यूक्लीयर पावर प्लाण्ट को अपनी चपेट में लिया तो किस तरह वहाँ ठेके पर काम करने वाले मजदूर विकिरण के प्रभाव में आये, ये ऐसे अकुशल मजदूर थे जिन्हें नाभिकिय विकिरण के बारे में कुछ भी नहीं पता था।
जापान में कियो विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर यूको फुजित, जो लम्बे समय के न्यूक्लीयर पावर प्लाण्ट में काम की स्थिति के सुधार के लिए अभियान चलाते रहे हैं, कि जापान सरकार ने प्लाण्ट में खतरनाक स्थिति के बावजूद भी मजदूरों को लगाया है जो उनके जीवन के साथी ही न्यूक्लियर सुरक्षा के लिए भी खतरनाक है।
जापान के १८ व्यावसायिक उर्जा संयन्त्र में लगभग ८३ हजार मजदूर काम करते हैं। इस आबादी का ८८ प्रतिशत आबादी ठेके के मजदूर हैंं। फु कोशिमा दाई-ची प्लाण्ट में १०,३०३ मजदूर काम कर रहे थे इनमें से ८९ प्रतिशत मजदूर ठेके के थे। एक उदाहरण मायासुकी इशीवाजा का है। सुनामी के आने के बाद जब प्लाण्ट में भगदड़ मची तो पचपन का साल का वह मजदूर इतना घबराया हुआ था कि अपने आप को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहा था। वह हेलमेट हाथ में लिये गेट की ओर भागा। गेट पर बहुत सारी गाडिय़ों की भीड़ लगी हुई थी और दरबान सबसे उनके पहचान पत्र देखकर अन्दर जाने की अनुमति दे रहा था। मजदूर गार्ड पर चिल्लाने लगा कि तुम्हें पहचान पत्र की पड़ी है और सुनामी आ रही है इसकी चिन्ता नहीं है। लेकिन गार्ड करता भी तो क्या करता? उसकी भी तो नौकरी खतरे में पड़ सकती थी। अन्तत: इशीवाज को बाहर जाने की इजाजत मिली।
यह मजदूर नाभिकीय खतरे के बारे में न कोई जानकारी रखता था और न हीं, वह टोकियो पावर कम्पनी का कर्मचारी ही था। वह उन हजारों खानाबदोश लोगों में से था जो न्यूक्लियर पावर प्लाण्ट के खतरनाक काम को बड़े पैमाने पर करते हैं। दूसरे देशों के न्यूक्लियर पावर प्लाण्टों में की यही हाल है। इन मजदूरों को ज्यादा दिहाड़ी की लालच देकर अस्थायी तौर पर रखा जाता है। ये मजदूर विकिरण के खतरे के बावजूद ज्यादा पगार के लालच में काम करते हैं। इस पावर प्लाण्ट को नाभिकिय और औद्योगिक सुरक्षा एजेंसी चलाती है। इसका कहना है कि ये ठेके के मजदूर इस बार, पिछले साल विकिरण से प्रभावित कर्मचारियों की तुलना में १६ गुना अधिक विकिरण से प्रभावित हुए हैं।

श्रमजीवी पहल पत्रिका के मई अंक से साभार

मजदूर वर्ग को अधिकार देना देश हित के खिलाफ!

यह कहना है केन्द्रीय श्रम और रोजगार मन्त्री मल्लिकार्जुन खडग़े का

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का संस्थापक सदस्य होने के बावजूद भारत ने इसके दो अतिमहत्वपूर्ण संधियों (कन्वेंशन्स) की अभीतक पुष्टि नहीं की है। ये दो संधियां हैं-संधि संख्या 87 और संधि संख्या 98, जो क्रमश: एकताबद्ध होने के अधिकार और संगठित होने के अधिकार के संरक्षण (1948) तथा संगठित होने एवं सामूहिक मोलभाव के अधिकार संधि (1949) से संबंधित है। इन दोनों को उन केंद्रीय आठ संधियों में से समझा जाता है, जो मजदूर वर्ग के अधिकारों की दृष्टि से बुनियादी तत्व हैं।
अन्तरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग द्वारा समय समय पर इन संधियों के महत्व को रेखांकित किया जाता रहा है। सबसे पहले 1995 में कोपेनहेगन में हुई सामाजिक विकास पर विश्व सम्मेलन में, उसके बाद 1998 में आईएलओ के बुनियादी सिद्धांतों और कार्यस्थल और उसके बाद के अधिकारों की घोषणा में और अन्तिम तौर पर जून 2००8 में जब अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने न्यायोचित वैश्विकरण हेतु सामाजिक न्याय के घोषणा पत्र को स्वीकार किया। भारत जोकि आईएलओ के संचालक निकाय में अभी तक निर्वाचित सीट है, उन आठ में से सिर्फ चार केन्द्रीय संधियों को मान्यता प्रदान की है। वे हैं- संधि संख्या 29-(बंधुआ मजदूर), संधि संख्या 1००- (समान पारिश्रमिक), संधि संख्या 1०5- (बंधुआ मजदूरी की समाप्ति) और संधि संख्या 111- (रोजगार और पेश में भेदभाव की समाप्ति)। गत नौ मार्च को केन्द्रीय श्रम और रोजगार मन्त्री मल्लिकार्जुन खडग़े ने राज्य सभा में एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि उपरोक्त दोनों संधियों को भारत सरकार इसलिए पुष्टि नहीं कर रही है कि इससे सरकारी कर्मचारियों को कुछ ऐसे अधिकार देने पड़ेंगे जो भारतीय संविधान के अनुरूप नहीं हैं।
परोक्ष रूप से उन्होंने इसे भारतीय शासक वर्ग की मजबूरी बताया। संधि 87 की दुनिया के 15० देशों ने पुष्टि कर दी है। जबकि संधि 98 की 16० देशों ने पुष्टि कर दी है।

Monday, May 23, 2011

कृषि और ग्रामीण मजदूरों पर महंगाई का कहर

यूपीए-2 के निरंकुश शासन के दो वर्ष पूरे हो गए हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, अव्यवस्था और जनता के साथ लूटपाट के लिए कुख्यात अपराधियों से भरे मंत्रिमंडल को यूपीए-2 में बहुत सोच समझकर आकार दिया गया है। अपराधियों के इस मंत्रिमंडल ने सबसे ज्यादा कहर देश की मजदूर आबादी पर ढाहा है। पिछले साल मंदी के नाम पर छंटनी और वेतन में कटौती करने वाला यह नापाक गठबंधन इस बार विकास दर के सब्जबाग दिखाकर जनता से फिरौती वसूल कर रहा है। शहरी और ग्रामीण मजदूरों की आबादी सबसे ज्यादा हैरान और परेशान है। तनख्वाहें तो कछुए की गति से बढ़ रही हैं जबकि महंगाई खरगोश की तरह कुलांचें ले रही है। ऐसे में वास्तविक तनख्वाहें मंदी के दौर से भी नीचे चली गई हैं। इसकी तस्दीक खुद यह अपराधी गिरोह कर रहा है।

कृषि एवं ग्रामीण श्रमिकों की खुदरा-महंगाई नौ प्रतिशत से ऊपर

गत सप्ताह जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार कृषि और ग्रामीण मजदूरों के लिए महंगाई दहाई से बस एक अंक ही कम रह गई है। जबकि कृषि श्रमिक इंडेक्स के मामले में 16 राज्यों में एक से दस अंक की वृद्धि दर्ज की गई। अखिल भारतीय उपभोक्ता मूल्य इंडेक्स पर आधारित मुद्रास्फीति का आंकड़ा अभी भी नौ प्रतिशत से ऊपर बना हुआ है। अप्रैल महीने में खेतिहर मजदूरों के मामले में खुदरा मूल्यों पर आधारित मुद्रास्फीति जहां मार्च की तुलना में मामूली घटकर 9.11 प्रतिशत रही, वहीं ग्रामीण श्रमिकों के मामले में यह मामूली बढ़कर 9.11 प्रतिशत हो गई।

श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा जारी आंकडों के अनुसार अप्रैल 2011 में मार्च 2011 के मुकाबले कृषि श्रमिकों का सामान्य इंडेक्स जहां दो अंक बढ़कर 587 अंक पर पहुंच गया वहीं ग्रामीण श्रमिकों का इंडेक्स तीन अंक बढकर 587 अंक हो गया। खुदरा बाजार के इन इंडेक्सों पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले साल अप्रैल के मुकाबले हालांकि अब भी काफी ऊपर है।
मंत्रालय की विज्ञप्ति के अनुसार महाराष्ट्र में कृषि और ग्रामीण श्रमिक दोनों इंडेक्सों में सर्वाधिक क्रमशः 10 और 9 अंक की बढ़त दर्ज की गई। ज्वार, बाजरा, मछली, सूखी मिर्च, पान पत्ता, जलाने की लकड़ी, सूती कपड़े के दाम बढ़ने से खेतिहर श्रमिकों का इंडेक्स बढ़ा है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में दोनों ही इंडेक्स में सबसे ज्यादा गिरावट क्रमशः सात और पांच अंक दर्ज की गई। यह गिरावट चावल, गेहूं आटा, दाल, सरसों तेल, प्याज, हरी मिर्च, हल्दी, लहसुन, जकड़ी और सूती कपडा के दाम घटने से आई है।

-संदीप राऊजी