Thursday, March 23, 2017

पुलिस और मैनेजमेंट से एक दिन की आज़ादी

ये वो तस्वीरें हैं जो 23 मार्च 2017 को ताउ देवी लाल पार्क, आईएमटी चौक, मानेसर, गुड़गांव में दर्जनों फैक्ट्रियों के मज़दूर भगत सिंह की शहादत दिवस पर जेल में बंद अपने मारूति के साथियों के समर्थन में हज़ारों मज़दूर इकट्ठा हुए थे. इस जनसभा को लेकर फैक्ट्रियों के मैनेजमेंट से लेकर पुलिस और प्रशासन तक ने उन पर दबाव बनाया. पहले जनसभा को इजाज़त नहीं दी, फिर धारा 144 लागू कर दी. फैक्ट्री मैनेजमेंट ने तरह तरह मज़दूरों को धमकी दी. लेकिन शिफ़्ट छूटते ही मज़दूरों का रेला पार्क की ओर उमड़ पड़ा. पार्क में कुछ सौ पुलिसकर्मी तैनात थे. मज़दूरों की तादात देख प्रशासन पीछे हटा. जनसभा के पहले दो घंटे में दो दर्जन पुलिसकर्मी पार्क में मज़दूरों के साथ खड़े थे. जैसे जैसे सभा लंबी होती गई, संख्या बढ़ती गई, पुलिस गेट की तरफ खिसकती गई. 
मैनेजमेंट की घुड़की और पुलिस की दबंगई से मानेसर के मज़दूर एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने में सफल रहे. इससे मज़दूरों का आत्मविश्वास बढ़ा. न सिर्फ जनसभा हुई बल्कि शिफ़्ट से निकले मज़दूर कतारबद्ध होकर जुलूस की शक्ल में बैनर, झंडों के साथ पार्क पहुंचे.
ग़ौरतलब है कि 2012 के हादसे के सिलसिले में मारुति के 13 कर्मचारियों को स्थानीय अदालत ने आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है. उन्हीं के समर्थन में इस जनसभा का आह्वान दिया गया था.


































मानेसर में मज़दूरों पर पुलिस का पहरा टूटा

18 जुलाई 2012 से ही गुड़गांव के मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की किसी भी बड़ी सभा या रैली की इजाज़त नहीं है. लेकिन 23 मार्च 2017 को हज़ारों की तादाद में मज़दूर अपनी अपनी फ़ैक्ट्रियों में शिफ़्ट ख़त्म होने के बाद घर की बजाय आईएमटी चौक की ओर चल पड़े. मज़दूरों का तांता देख पुलिस भी पीछे हटी, हालांकि पुलिस ने पहले इसकी इजाज़त देने से इनकार किया था.
भगत सिंह और उनके साथियों के शहादत दिवस, 23 मार्च के अवसर पर मारूति के पूर्व कर्मचारियों के समर्थन में करीब 5000 मज़दूरों ने IMT मानेसर के ताऊ देवीलाल पार्क में हुई जनसभा में हिस्सा लिया।
मारुति के 13 पूर्व कर्मचारियों को अदालत द्वारा उम्रकैद दिए जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ नीमराणा से लेकर गुड़गांव तक के मज़दूर अपनी यूनियनों के साथ जिस जोश और ऊर्जा के साथ इस रैली और सभा में शामिल हुए वो इस औद्योगिक क्षेत्र में सामूहिक पहल की नयी इबारत लिखता है।
इस जुलूस को रोकने के लिए मानेसर पुलिस ने इलाके में 26 तारीख़ तक धारा 144 लगा दी थी, जिसे तोड़ते हुए मजदूरों ने ये रैली की। प्रशासन ने इलाक़े में भारी पुलिस बल तैनात कर रखा था।
जुलूस से लेकर सभा तक करीब 40 से ज्यादा यूनियनें शामिल हुईं। आगामी 4 अप्रैल को अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा हुई। इसके अलावा जेल में बंद साथियों और उनके परिवार की आर्थिक मदद की भी पहल ली गयी।

Monday, March 20, 2017

क्या मज़दूरों को व्यवस्था से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए?

(दो जून 2015 को तहलका में प्रकाशित हुई विकास कुमार की ये रिपोर्ट 2012 को मानेसर के मारुति प्लांट में हुई घटना के बाद जेल में बंद 148 मज़दूरों की कहानी का एक पक्ष उजागर करती है. अब जबकि 31 मज़दूरों को दोषी क़रार दे दिया गया है औ उनमें से 13 को आजीवन कारावास दे दिया गया है और बाकियो ंको चार से दस साल की सज़ा सुनाई गई है, ये लेख फिर से प्रासंगिक हो गया है. सं.)
सात मई की दोपहर दिल्ली के विवेक विहार में रहने वाले 55 वर्षीय शिव प्रसाद गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में आए हैं. मई की इस तपती दोपहरी में शिव प्रसाद पिछलेदो घंटे से चहलकदमी कर रहे हैं. वो समय रहते अपने बेटे का ‘बेल बॉन्ड’ भर लेना चाहते हैं ताकि उसे जेल से निकालकर घर ले जा सकें. शिव प्रसाद का 25 वर्षीय बेटा प्रदीप कुमार पिछले ढाई साल से जेल में बंद है. एक दिन पहले ही उसे जमानत मिली है. आज सुबह जब शिव प्रसाद घर से अदालत के लिए निकल रहे थे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि आज बेटे को घर लेकर ही आना. शिव प्रसाद कहते हैं, ‘क्या कहें ये ढाई साल कैसे बीते हैं. जवान बेटा जेल में था. आज-कल करते-करते ये ढाई साल निकल गए. जब कभी भी राकेश की मां को मिलने-मिलवाने के लिए लाया वो केवल रोई. घर पर भी उसके दिन और रात रोते-रोते ही बीते हैं. अगर आज लड़का घर जाएगा तो सबको सालों बाद थोड़ी खुशी मिलेगी.’
 प्रदीप उन 148 मजदूरों में से एक हैं जो जुलाई 2012 में मारुति के हरियाणा स्थित मानेसर इकाई में मजदूरों और प्रबंधन के बीच हुई झड़प के बाद गिरफ्तार किए गए थे. इस घटना में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत हो गई थी.
मामले में पुलिस ने मारुति के मानेसर इकाई से जुड़े 148 मजदूरों पर आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या करने का प्रयास करना), 147 (दंगा करना), 353 (सरकारी काम में बाधा पहुंचाना), 436 (आग लगाना) और 120बी (साजिश करना) के तहत मामला दर्ज किया और सभी आरोपित मजदूरों को अगले कुछ दिनों में गिरफ्तार भी कर लिया.
‘तहलका’ ने मार्च 2014 में इस मामले पर ‘मजबूर मजदूर’ नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की थी. तब मजदूरों की तरफ से गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील रघुवीर सिंह हुड्डा ने पुलिस के चार्जशीट पर सवाल खड़े किए थे. उन्होंने चार्जशीट के जिस हिस्से पर सवाल खड़े किए थे उसमें चार चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. गवाह नंबर 9 ने अपने बयान में कुल 25 मजदूरों के नाम लिए हैं जिनके नाम अंग्रेजी के अक्षर ‘ए’ से ‘जी’ तक हैं. गवाह नं.10 ने भी अपने बयान में गिनकर 25 मजदूरों को ही देखने की बात स्वीकारी है. इनके नाम क्रम से अंग्रेजी के अक्षर ‘जी’ से ‘पी’ तक हैं. गवाह नंबर 11 ने जिन 25 मजदूरों के नाम लिए हैं वे अंग्रेजी के ‘पी’ से ‘एस’ तक हैं. गवाह नंबर 12 ने अपने बयान में 14 मजदूरों के नाम लिए हैं और ये नाम अंग्रेजी के ‘एस’ से ‘वाई’ तक हैं. इसके अलावा इन सभी चार गवाहों के बयान बिल्कुल एक जैसे ही हैं. जैसे कि इन सभी गवाहों ने अपने बयान के अंत में कहा है कि इनके अलावा और तीन-चार सौ मजदूर थे जो अपने हाथ में डोरबीम लिए हुए कंपनी के बाहर चले गए थे और मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई.
पुलिस द्वारा अदालत में दाखिल की गई इस चार्जशीट को दिखाते हुए रघुवीर सिंह ने कहा था कि पहली ही नजर में यह साफ जान पड़ता है कि ये सारे बयान किसी एक ही आदमी ने लिखे हैं और इनमें जो नाम लिखे गए हैं वो कंपनी के किसी रजिस्टर से देखकर लिखे गए हैं.
आज, जुलाई 2012 की उस घटना को तीन साल होने वाले हैं. मामला अदालत में है और फिलहाल 114 आरोपित मजदूर जमानत पर रिहा हो चुके हैं, 34 मजदूर अब भी जेल में हैं. हालांकि जिन्हें जमानत मिली उन्हें भी इसके लिए कम से कम दो साल तीन महीने का इंतजार करना ही पड़ा.
इस मामले में पहली दफा फरवरी 2015 में दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी और उसके बाद ही बाकी 112 को जमानत मिलना संभव हो पाया. इस साल फरवरी में जिन दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली उनकी याचिका गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायलय से तीन बार खारिज हो चुकी थी और चंडीगढ़ हाईकोर्ट से दो बार. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के जज केसी पुरी ने मई 2013 में इन दो मजदूरों की जमानत याचिका को पहली बार खारिज करते हुए कहा था, ‘इस घटना की वजह से भारत की छवि दुनिया भर में खराब हुई है. विदेशी निवेशकों में गलत संदेश गया है. संभव है कि विदेशी निवेशक, मजदूर वर्ग में व्याप्त रोष की वजह से भारत में पूंजी निवेश न करें.’
चंडीगढ़ हाईकोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज होने के बाद इन दो मजदूरों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2014 को यह कहते हुए इनकी याचिका खारिज कर दी कि पहले मामले के चश्मदीद गवाहों के बयान निचली अदालत में दर्ज हो जाएं, इसके बाद जमानत पर विचार किया जाएगा. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने जिला एवं सत्र न्यायालय गुड़गांव को निर्देश दिया कि 30 अप्रैल 2014 तक इस केस के चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज करा लिए जाएं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समयसीमा के बाद चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज हुए. गवाहों ने अदालत में इन दो मजदूरों की गलत पहचान की.
इस आधार पर इन लोगों ने एक बार फिर जमानत के लिए चंडीगढ़ हाईकोर्ट से गुहार लगाई लेकिन 23 दिसंबर 2014 को हाईकोर्ट ने एक बार फिर इन्हें जमानत देने से मना कर दिया. जमानत याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने यह तो माना कि इन्हें जमानत दी जानी चाहिए लेकिन साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इन लोगों को इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगानी चाहिए. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मजदूरों ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका दाखिल की और आखिरकार यहां से इन्हें 20 फरवरी 2015 को राहत मिली. इन दो मजदूरों को इनकी गिरफ्तारी के लगभग 31 महीने बाद जमानत मिली और ये जेल से बाहर आ पाए. इसके बाद मार्च 2015 में 77 और आरोपित मजदूरों को गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय से जमानत मिली. कुल मिलाकर अब 114 आरोपित मजदूर जमानत पर बाहर हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन्हें जमानत मिलने में ही इतना वक्त क्यों और कैसे लग गया? जबकि कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट खुद ही यह मान चुका है कि देश की अदालतों को ‘जेल नहीं बेल’ की थ्योरी के तहत काम करना चाहिए. हम ये सवाल देश की जानी-मानी वकील वृंदा ग्रोवर के सामने रखते हैं. वृंदा इस मामले में मजदूरों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी कर रही हैं. सवालों के जवाब में वृंदा कहती हैं, ‘मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं कि जमानत मिलने में इतना समय कैसे लग गया. जबकि कानूनी तौर पर ये केस बहुत कमजोर है. जुलाई में इस मामले की अंतिम सुनवाई होनी है और अब तक 34 मजदूर जेल में हैं.’ वहीं गुड़गांव जिला एवं सत्र न्यायालय में मजदूरों की तरफ से पैरवी कर रहे वकील मोनू कुहाड़ का मानना है कि यह मामला कभी कानूनी था ही नहीं. मोनू कहते हैं, ‘जब हम इस मामले को कानून के दायरे से बाहर जाकर समझते हैं तो काफी कुछ साफ होता है. गुड़गांव में करीब-करीब 12 लाख मजदूर और कर्मचारी हैं जो कई अलग-अलग निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं और समय-समय पर अपनी मांगों के लिए प्रबंधन पर दबाव बनाते रहते हैं. इस केस के हवाले से इन लाखों कर्मचारियों को एक संदेश देने की कोशिश की गई है कि अगर तुमने अपनी यूनियन बनानी चाही तो तुम्हें भी मारुति के मजदूरों की तरह बिना किसी खास सबूत और गवाह के दो-ढाई साल तक जेल में सड़ा दिया जाएगा. तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और परिवार बिखर जाएगा.’
मोनू आगे बताते हैं, ‘इस केस में 148 मजदूर पिछले दो-ढाई साल से जेल में थे लेकिन जब हम इस केस को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि केवल 10-15 मजदूर ऐसे हैं जिनके खिलाफ कुछ सबूत हैं वो भी इतने पुख्ता नहीं हैं कि उन पर हत्या का मामला साबित हो सके. इस केस में 102 गवाह थे और सबकी गवाही अदालत में हो चुकी है. 148 आरोपित मजदूरों में से 16 ऐसे हैं जिनके खिलाफ एक भी गवाह अदालत में नहीं आया. 98 ऐसे आरोपित मजदूर हैं जिनके खिलाफ गवाह तो आए लेकिन किसी भी गवाह ने इनकी पहचान नहीं की. ये लोग जिन्हें अभी जमानत मिली है वो पहली फुर्सत में बरी किए जाने चाहिए थे. क्योंकि इनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है, कोई गवाह ही नहीं है.’
मोनू बात करते हुए कुछ सवाल उठाते हैं और इन सवालों के जवाब भी वो खुद ही देते हैं. वो कहते हैं, ‘जिनके खिलाफ कोई सबूत या गवाह नहीं है उस पर मुकदमा कैसे चल सकता है? इन्हें जेल में कैसे रखा जा सकता है? लेकिन सच्चाई ये है कि ये सालों तक जेल में रहे हैं और अब जमानत पर बाहर आए हैं. अब इससे तो यही समझ आता है कि सरकार और व्यवस्था इन मजदूरों के बहाने बाकी लाखों मजदूरों को एक सबक देना चाहती थी. जिसमें वो कामयाब रही.’
इस बारे में बात करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से संपर्क करते हैं तो वह साफ शब्दों में न्यायपालिका और सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं, ‘जमानत की पूरी प्रक्रिया ही मनमानी है. अदालतें जिसे चाहें जमानत दें और जिसे चाहें, न दें. हमारी अदालतों में वर्ग भेद भी बहुत है, यही कारण है कि पढ़े-लिखे और पैसे वाले व्यक्ति को तुरंत जमानत मिल जाती है लेकिन निचले तबके को जमानत के लिए सालों चक्कर लगाने पड़ते हैं.  सरकारों की मंशा भी अदालतों को प्रभावित करती है. सरकार जिसे दबाना चाहती है, अदालत उसे जमानत नहीं देती है.’
इस पूरे प्रकरण से जुड़ा एक और तथ्य है जिसे नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जिस वक्त यह घटना हुई थी उस वक्त हरियाणा में कांग्रेस का शासन था और भूपेंद्र सिंह हुड्डा राज्य के मुख्यमंत्री थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी को स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर नियुक्त किया. आरटीआई से मिली एक जानकारी के मुताबिक तत्कालीन हरियाणा सरकार ने केटीएस तुलसी को हर पेशी के लिए 11 लाख रुपये फीस दी. तुलसी के तीन सहायकों को एक पेशी के लिए 66,000 रुपये मिलते थे. दो साल में मारुति केस में भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार ने केटीएस तुलसी को 5 करोड़ रुपये बतौर फीस दिए थे. पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ. भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी और मनोहर लाल खट्टर राज्य में मुख्यमंत्री बने. भाजपा सरकार ने पिछले साल दिसंबर में केटीएस तुलसी को इस केस से अलग कर दिया. इस मामले में हरियाणा की मौजूदा सरकार का पक्ष जानने के लिए हमने खट्टर सरकार के  श्रम और रोजगार मंत्री कैप्टन अभिमन्यु से संपर्क किया लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.
इस कानूनी लड़ाई में एक पक्ष उन परिवारों का भी है जिनके लड़के इस मामले में सालों से जेल में बंद हैं या सालों बाद जमानत पर रिहा हुए हैं. जिन परिवारों के लड़के अभी तक जेल में बंद हैं वो जल्दी ही उनके जेल से छूटने की उम्मीद लगाए हुए हैं और इसी सहारे अपना जीवन जी रहे हैं. वहीं जिन परिवारों के बच्चे जमानत पर बाहर आ चुके हैं वो ठगा-सा महसूस करते हैं. उन्हें इस बात की खुशी तो है कि उनका लड़का जेल से बाहर आ गया लेकिन इनके मन में यह सवाल भी है कि इतने समय बाद क्यों? जब ‘तहलका’ ने ऐसे प्रभावित परिवारों से संपर्क किया तो कईयों ने बात करने से साफ मना कर दिया. कुछ लोगों का कहना था कि वो अब पिछली जिंदगी को याद नहीं करना चाहते और जो हुआ उसे भुलाकर भविष्य की तरफ देखने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं कुछेक परिवारों ने मीडिया के प्रति अपनी नाराजगी का इजहार करते हुए बात करने से ही मना कर दिया.

Sunday, March 19, 2017

'अदालत, मीडिया किसी ने हमारा साथ नहीं दिया....'

(यह रिपोर्ट 2 जून 2015 में तहलका पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. तबतक मज़दूरों को जेल में कैद रहते तीन साल हो चुके थे. उस समय एक मज़दूर की आपबीती को पत्रकार विकास कुमार ने बात की थी. सं.)
20 वर्षीय रमन विश्नोई हरियाणा के फतेहाबाद जिले के रहने वाले हैं. नवंबर 2011 में रमन ने मारुति के मानेसर प्लांट में बतौर प्रशिक्षु काम करना शुरू किया था. जुलाई 2012 की घटना के बाद पुलिस ने उन्हें भी उनके कमरे से गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया. अपनी गिरफ्तारी के पौने तीन साल बाद रमन इसी साल मई में जमानत पर रिहा हुए हैं.
रमन से हमारी मुलाकात गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायलय में हुई. वो यहां पेशी के लिए आए हैं. कंधे पर बैग लटकाए रमन एक पल के लिए किसी कॉलेज के छात्र जान पड़ते हैं लेकिन ऐसा है नहीं. रमन पिछले कई सालों से जेल में थे और उनके मुताबिक वो बिना किसी गलती के जेल की सजा काटकर आए हैं. रमन अपनी आपबीती बताते हुए कहते हैं, ‘क्या कहेंहमारा जीवन तो बर्बाद ही हो गया समझिएहम तो पक्की नौकरी पर भी नहीं थेट्रेनी थेकल को अगर बेगुनाह साबित भी हो गए तो भी कुछ नहीं मिलेगाजो पक्की नौकरी पर थे वो तो केस-मुकदमा भी कर सकते हैं. हम क्या करेंगेहमें तो कल को कोई नौकरी पर भी नहीं रखेगाक्योंकि हम जेल में थे.
रमन के परिवार में उनके पिता हैं जो खेती-किसानी करते हैं, मां हैं और एक बहन है. उनका छोटा-सा परिवार अपने गांव में ही रहता है. जितने दिन रमन जेल में रहे उतने दिन उनके पिता फतेहाबाद और गुड़गांव कोर्ट के बीच चक्कर लगाते रहे. हर तारीख पर आना. हर कुछ दिन पर अपने बेटे से जेल में जाकर मिलना. कपड़े और दूसरे जरूरी सामान देना उनकी नियमित
दिनचर्या थी. रमन के अनुसार आज उनके पिता जी के माथे पर करीब-करीब पांच से सात लाख का कर्ज है. बहन की शादी के लिए जो थोड़े-बहुत पैसे थे वो भी उन्हें बाहर लाने में चले गए. फिलहाल रमन को इस बात का
डर है कि आगे उन्हें कोई काम नहीं देगा क्योंकि उन पर जेल काटकर आने का ठप्पा लग चुका है.
रमन इस सबके लिए पूरे सिस्टम और मीडिया को दोषी मानते हैं. रमन के मुताबिक उनके साथ वही हुआ जो अब तक वो केवल टीवी या सिनेमा में देखते रहे हैं. वो कहते हैं, ‘मेरे साथ जो हुआ है वैसा होते हुए मैंने आज तक केवल फिल्मों में ही देखा है. फिल्म की शुरुआत में पूरा सिस्टम एक साथ मिलकर हीरो और उसके परिवार को परेशान करता है. फिल्म के आखिर में हीरो पूरे सिस्टम को सबक सिखाता है. लेकिन यहां ऐसा नहीं है. मैं फिल्म का हीरो नहीं हूं और यहां सब कुछ असली है. वास्तव में पूरा सिस्टम भ्रष्ट है. पुलिस ने हमे बिना एफआईआर में नाम के जेल में डाल दिया और अदालतों ने दो-ढाई साल तक जमानत नहीं दीमीडिया ने भी हमारा साथ नहीं दियाऔर मैं कुछ नहीं कर सकता. मैं केवल अपनी जिंदगी को शुरू होने से पहले ही बर्बाद होते हुए देख सकता हूं.
मई की दोपहर में एक पेड़ के नीचे रमन विश्नोई हमसे ये सारी बातें एक सांस में कह गए. ऐसा महसूस होता है कि रमन ने जो कहा उसकी वजह से दिन का पारा सौ डिग्री के आसपास पहुंच गया है और इस आंच में सबकुछ धू-धूकर जल रहा है.

 तहलका से साभार

फिलिस्तीनी ऐक्टिविस्‍ट की शवयात्रा में उमड़ी जनता

10 दिन पहले इजरायली सेना ने वेस्ट बैंक में फिलिस्तीन के युवा एक्टिविस्ट बासिल अल अराज को गोलियों से छलनी कर दिया गया था। इतना ही नहीं उन्होंने 10 दिनों तक उसके शव को अराज के परिवार वालों को नहीं दिया। इसके खिलाफ पूरे फिलिस्तीन में जबरदस्त प्रदर्शन हुए। आखिरकार 19 मार्च को इजरायल ने उसके शव को सौंप दिया। जिस समय
अराज की शवयात्रा निकली ऐसा लगा जनता का सैलाब उमड़ पड़ा हो। मुक्ति संघर्ष के इस सेनानी को अंतिम विदाई देने के लिए मैं भी वहां था। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि मैं उसके पार्थिव शरीर को बड़ी जद्दोजहद के बाद देख पाया। फिलिस्तीन के स्वास्‍थ्य मंत्रालय के मुताबिक अराज को 10 गोलियां मारी गई थीं, जबकि वह अहिंसावादी था और अहिंसात्मक ढंग से ही इजरायल की कब्जा करने की नीति का विरोध करता था। दो गोलियां तो उसके सिर में और दो सीने में मारी गई थीं। जाहिर है इसके बाद वह जिंदा नहीं रहा होगा। आप समझ सकते हैं, उसको मारने के बाद भी मारा गया। ओह इतनी क्रूरता कोई इंसान कैसे कर सकता है...इस समय मुझे मेल गिब्सन की प्रसिद्ध फिल्म ब्रेव हर्ट याद आ रही थी...बासिल ऐसा ही जांबाज था... शव यात्रा में मैंने देखा अराज के पिता अपने बेटे के शव को सॉल्यूट कर रहे थे। वहां मौजूद पत्रकारों के एक समूह से उन्होंने कहा कि वे खुद को बड़ा भाग्यशाली मान रहे हैं कि वे अराज को अंतिम विदाई दे पाए। एक युवा लड़की, जो कि संभवतः अराज की करीबी दोस्त थी ‌कब्रिस्तान के गेट के कोने में खड़ी फूट-फूट कर रो रही थी। वेस्ट बैंक के ‌कब्रिस्तान में अराज के शव का अंतिम संस्कार किया गया। अराज की शवयात्रा उसके पै‌तृक घर बेथलहेम के गांव अल वजाला से शुरू हुई। अभी अराज महज 31 साल का था। 6 मार्च को रमल्ला में इजरायली सेना के हमले में उसकी मौत हो गई थी। अराज फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष का एक जांबाज योद्धा था। उसने इसके लिए फिलिस्तीन के युवाओं को संगठित करने का काम किया। उसके न रहने पर भी फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष का कारवां नहीं रुकने वाला....‌बासिल अल अराज के करीबी साथी हमजा अकरावी कहते हैं बासिल के न रहने से फिलिस्तीन के इजरायल विरोधी शांतिपूर्ण युवा आंदोलन को बहुत बड़ी क्षति पहुंची है। लेकिन इसे खत्म नहीं किया जा सकता। जल्दी ही हम इस दुख से उबर जाएंगे। हालात हमें ठंडा होकर बैठने नहीं देते। इसलिए बासिल हमेशा हमें प्रेरणा देता रहेगा। (यह लेख फिलिस्तीन के मशहूर लेखकर मजीन कमसिएह का है। वे फिलिस्तीन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के निदेशक, सामाजिक कार्यकर्ता, और इजरायल के खिलाफ फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष पर कई किताबों के लेखक हैं।)