Saturday, June 12, 2010

नारकीय जीवन से जूझ रही है श्रमिकों की आधी दुनिया


(लेखक जेएनयू से जुड़े हुए हैं और यह उनका लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छप चुका है। उनकी सहमति पर इस लेख को यहां दिया जा रहा है।)
संदीप कुमार मील
एक अनुमान के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई घंटे काम करती है, लेकिन वह विश्व की केवल 10 प्रतिशत आय अर्जित करती हैं और विश्व की केवल एक प्रतिशत संपत्ति की मालकिन हैं। भारतीय संदर्भ में महिला श्रम या श्रम में महिलाओं की भागीदारी पर बात करते समय पिछले कुछ वर्षो में तीन विषेष तथ्य सामनें आतें है। एक तथ्य है कि महिलाओं की श्रम शक्ति में बढ़ती भागीदारी, घरेलू कामों में महिलाओं की बदलती भूमिकाएं और शादीशुदा होने पर उनकी पुनरुत्पादन की भूमिका का नौकरी और काम की जरूरतों पर प्रतिकूल प्रभाव। जब हम महिला आरक्षण और महिला सशक्तिकरण की बात करतें है तब यह जरूरी है कि समाज में महिलाओं के श्रम और उसकी स्थिति का आकलन करें। भारत में ज्यादातर औरतें (ग्रामीण औरतों का लगभग 85 प्रतिशत) किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ी हुई है, लेकिन विश्व व्यापार संगठन के समझौतों द्वारा बीजों की सुरक्षा, खाद्य प्रसंस्करण आदि का अधिकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास जाने से कृषि क्षेत्र में सलंग्न महिला श्रमिकों पर प्रतिकूल असर पड़ा है।
कृषि पर पिछले दशकों में आए संकट की वजह से कृषि से हुए परिवारों और खास तौर से ग्रामीण महिलाओं की स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई है। हालांकि औरतों की उत्पादक गतिविधियों में हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन इन गतिविधियों को मापने के सटीक तरीके नहीं होने के कारण महिलाओं के राष्ट्रीय आय में योगदान को ठीक से समझ पाना मुश्किल है। उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (2005) योजना के तहत एकल परिवार और घर या गृहस्थी की परिभाषा में ऐसे एक सदस्यीय परिवारों को शामिल नहीं किया गया है जिनकी मुखिया औरत हो।
इसलिए एकल परिवार की परिभाषा में औरतों को निर्भरता की श्रेणी में रखकर पुरुष प्रधान समाज की पितृसत्तात्मक धारणा को ही आगे बढ़ाया गया है। ऐसे बहुत से उदाहरण है जिनमें औरतों के उत्पादन की गणना राष्ट्रीय आय में नहीं होती। घरेलू कामगारों की स्थिति और भी भयानक है क्योंकि समाज में घरेलू काम को काम माना ही नहीं जाता है, चाहे वो अपने घर पर हो या दूसरे के घर पर। श्रम विभाजन के तहत घरेलू महिला कामगारों को हेय दृष्टि से देखा जाता है जिनके लिए सामाजिक सुरक्षा का कोई उचित प्रावधान नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने 2008 में असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून बनाया था मगर अभी तक लागू नहीं हो सका है। घरेलू महिला कामगारों और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के साथ हिंसा और यौन शोषण के मामलों लगातार बढ़ोतरी हो रही है। एक श्रमिक के रूप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनकी श्रम कानूनों में कोई चर्चा नहीं है।

अगर एक महिला निर्माण कार्य में अपने पति के साथ काम करती है तो उसका वेतन भी पति को ही मिल जाता है, हो सकता है कि वो पति उन पैसों को शराब में बरबाद भी कर दे तो भी महिला कुछ नहीं कर सकती। इसी कारण महिलाएं खुद को सशक्त नहीं बना पाती हैं। असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक को श्रमिक ही नहीं माना गया है जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। अकेले राजस्थान में यह संख्या लगभग दो लाख सात हजार के आसपास है। इस क्षेत्र में महिलाओं की कमजोर स्थिति के अनेक कारण है, जैसे कि हमारी सामाजिक व्यवस्था का ढांचा ही ऐसा है जिसमें लिंग के आधार पर भेदभाव होता है। इसके अलावा महिलाओं के लिए काम के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण अनेक प्रकार से मालिकों की डांट सुननी पड़ती है। जब एक परिवार पलायन करके गांव से शहर आता है तो मात्र पुरुष की मजदूरी से घर का काम नहीं चलता है इसीलिए महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है जिनका पहले से उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। जितने भी झुककर करने वाले काम हैं उनमें पुरूषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा है। अगर संगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की स्थिति का विश्लेषण करें तो वहां पर सामाजिक सुरक्षा के कुछ कानून तो बने हुए हंै, लेकिन कानून को लागू करने वाली मशीनरी की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी है कि महिलाओं को उनका हक और न्याय नहीं मिल पाता है। बहुत से हिंसा और यौन शोषण के मामलों में इसलिए न्याय नहीं मिल पाता है, क्योंकि जो संस्थाएं इन मामलों की जांच के लिए बनाई जाती हैं उनकी कार्यप्रणाली बहुत ही मंद है।

संगठित क्षेत्र में जो महिलाएं कारखानों में काम करती है उनके लिए न तो अलग से टायलेट की व्यवस्था है और न ही उनके बच्चों को सुलाने की कोई व्यवस्था जिनके कारण महिला कामगारों को बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मजदूरी कम मिलती है और काम ज्यादा करना पड़ता है। मजदूरी के अलावा महिलाओं पर परिवार की देखभाल और घर की व्यवस्था की जिम्मेदारी होने के कारण वह अनेक शारीरिक बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं। शहर की महिलाओं के रोजगार की बात करें तो उनके द्वारा घर पर रहकर किए जाने वाले कामों में वृद्धि हुई है जो पूर्णतया ठेकेदारी प्रथा पर निर्भर है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नेटवर्क सभी शहरों में फैला हुआ है जिनके माध्यम से अनेक प्रकार के कार्य महिलाओं को घर पर करने के लिए दिए जाते हैं। इस तरह के कामों में एक सुविधा तो है कि महिलाओं को घर से बाहर नहीं जाना पड़ता है मगर बीच में दलालों की कड़ी इतनी लंबी होती है कि महिलाओं को उनके काम का उचित प्रतिफल नहीं मिलता है। आम महिला श्रमिक आज भी सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, कारगार व्यवस्था, अवकाश, मातृत्व लाभ, विधवा गुजरा भत्ता और कानूनी सहायता आदि से वंचित हैं। विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है।
विकास का अर्थ और उद्देश्य केवल भौतिक उत्पादन में वृद्धि ही नहीं है, बल्कि लोगों के जीवनयापन की स्थितियों को बेहतर बनाना है। इसलिए विकास के माडल में महिलाओं के श्रम को भी भैतिक लागत में शामिल किया जाए, जो परिवार के खर्च कम करने में योगदान करता है।

2 comments:

  1. श्रमिकों को लेकर सार्थक और अच्छी पोस्ट

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  2. श्रमिकों के पक्ष में लिखने वाले न के बराबर है .. इतने अच्‍दे काम के लिए मेरी शुभकामनाएं स्‍वीकार करें !!

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