Saturday, July 17, 2010

हम हारे, क्योंकि हम कमजोर थे

देवेन्द्र प्रताप

आज किसी भी क्षेत्र का मजदूर हो आमतौर पर उसे 12 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है। देश में न्यूनतम मजदूरी ऐक्ट के बने होने के बावजूद देश में मजदूरों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जो न्यूनतम मजदूरी से वंचित है। यदि किसी को न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उससे ज्यादा मजदूरी मिलती है तो उसे आठ घंटे की जगह 12 घंटे-14 घंटे काम करना पड़ता है। नियम तो यह भी है कि एक मजदूर जो 8 घंटे से ज्यादा काम करता है तो उसे अतिरिक्त काम के घंटो के लिए दोगुनी दर से मजदूरी का भुगतान किया जाए। ऐसे ही अन्य नियम भी हैं जिन्हें यदि सरकार लागू कर दे तो मजदूरों की दाना-पानी से सम्बन्धित अधिकांश समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। लेकिन पिछले 50-60 साल में फिलहाल ऐसा नहीं नजर आया जबकि किसी सरकार ने मजदूरों की ओर से बिना दबाव पड़े उनकी समस्याओं का समाधान कर दिया हो। आज तो यह हालत है कि मजदूरों ने काफी संघर्ष और कुर्बानियों के बाद जो अधिकार हासिल किया था आज सरकार उनको भी छीनने में लगी हुई है। आज मजदूर आन्दोलन भी पस्ती की हालत में है इसलिए वह सरकार के ऊपर दबाव बनाने में सक्षम नहीं है। उसके आन्दोलन की मददगार वामपंथी पार्टियों ने भी आज अपने पांव पीछे कर लिए हैं या फिर सिर्फ कदमताल करने में लगी हुई हैं। आज उनकी समूची ताकत टूटकर कई-कई खण्डों में विभाजित हो गयी हैं। वामवंथी आन्दोलन का विखराव भी मजदूरों की समस्याओं के लिए एक प्रधान कारण है। जिस समय देश में मजदूर आन्दोलन चढ़ाव पर था तो मजदूरों के अलग-अलग सेक्शन एक दूसरे के आन्दोलनों को मदद करते थे लेकिन आज स्थिति बिल्कु ल बदल गयी है। आज एक दूसरे की मदद करने की भावना न सिर्फ समाज से बल्कि मजदूर आन्दोलन से भी गायब हो गयी हो गयी है। इसी त्रासदी का परिणाम है कि 21वीं सदी में प्रवेश कर चुकी मानव सभ्यता में आज भी कड़ी मेहनत करने वाला मजदूर दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहा है। सीपीआई, सीपीएम जैसी वामपंथी पार्टियों की हालत यह है कि उन्होंने अपने विभाजन के साथ ही देश के मजदूरों को भी अलग-अलग बांट दिया है। हकीकत तो यह है कि मजदूरों के अलग-अलग संगठन आज वाम और दक्षिण दोनों तरह की पार्टियों के पॉकेट संगठन बन गये हैं। जहां तक भवन निर्माण जैसे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत तो और भी खराब है। ज्यादातर संगठित क्षेत्र में मजदूरों की यूनियनें हैं भले ही उनकी हालत कितनी ही कमजोर क्यों न हो। जहां तक भवन निर्माण के क्षेत्र में मजदूर यूनियन का सवाल है यह समूचा क्षेत्र अभी इससे वंचित है। कुछेक यूनियनें हैं भी तो उनकी हालत बेहद खराब है। पिछले एक दशक से निर्माण क्षेत्र में देश में वामपंथी और कुछ दक्षिण पंथी पार्टियों के संगठन काम कर रहे हैं लेकिन अभी तक उनके ऊपर मजदूर वर्ग का विश्वास नहीं जम पाया है। इनकी सबसे खराब बात यह है कि ये मजदूरों को सेक्शनल लड़ाइयों तक ही सीमित रखते हैं। ऐसा लगता है कि आज इनके लिए -दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा- मात्र कागज पर लिखे कुछ लाल-लाल अक्षर से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। राष्ट्र निर्माण में अपना श्रम बेच कर 85 प्रतिशत से अधिक का योगदान डालने वाला मजदूर खुद अपने विकास से कोसों दूर है। सवाल उससे भी बनता है कि आखिर कब तक किसी मसीहा की प्रतीक्षा करेगा? यह भी एक कमजोरी है कि मजदूर आमतौर पर सोचता है कि लोग उसकी मदद करने आयेंगे। जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं गुजर जाता तब तक उसे विरोध की राजनीति करने की नहीं सूझती। और जब समस्याएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि लड़े बिना काम नहीं चलता तो वह लड़ता है। लेकिन ऐसा देखने में आता है कि किसी एक क्षेत्र का मजदूर अपने दूसरे मजदूर भाइयों की मांगों को नहीं उठाता। इस मामले में वह स्वार्थी होता है। और ज्योंही उसका स्वार्थ पूरा हो जाता है यानी उसका मालिक उसकी कुछ मांगों को मांग लेता है तो वह दूसरे भाइयों का दर्द भूल जाता है। वह कभी-कभी अपने दूसरे मजदूर भाइयों के बारे में सोचता भी है तो उनके साथ कोई एकता नहीं बनाता। किसी पेशे विशेष के मजदूर की यही प्रवृत्ति, उनका यही स्वार्थ उसे दूसरे मजदूरों से काट देता है। अगर वह हार जाता है तो वह निराशा के भंवर में फंस जाता है। उसे लगता है कि सारी दुनिया में उसकी ओर से कोई लडऩे वाला नहीं है। वह सोचता है कि मालिकों की ताकत ज्यादा है वे उससे ज्यादा ताकतवर हैं और वह उनसे नहीं जीत सकता। वह जो सोचता है सही सोचता है वह इस मामले में कोई मध्यवॢगयों जैसी रुमानियत का शिकार नहीं है। बल्कि सच कहें तो वह ज्यादा यथार्थवादी है। आज के मजदूर आन्दोलन के पराभव के पीछे यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है। लेकिन कहते हैं न कि हर हार में जीत के भी कुछ बीज छुपे होतें होते हैं। इस मामले में भी यह लागू होता है। मजदूर हारता है क्योंकि वह अलग-अलग पेशागत लड़ाइयां लड़ता है। कई बार एक पेशे विशेष का मजदूर भी कई-कई खण्डों में बंटा होता है। यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। उसके सामने जो दुश्मन है वह ज्यादा ताकतवर सिर्फ इसलिए है क्योंंकि वह संगठित है। न सिर्फ देश के पैमाने पर वरन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वह संगठित है। इसलिए जब लड़ाई एक कमजोर और ताकतवर के बीच होगी तो निश्चित ही जीत ताकतवर की होगी। इस गुत्थी को हल किये बिना मजदूर वर्ग के लिए जीत की कल्पना करना भी मुश्किल है। आज उसके लिए सबसे ज्यादा जरुरत इस बात की है कि वह अपनी गलती ठीक करे।

जी-20 सम्मेलन : फिर वही गिले शिकवे फिर वही वादे


                                                              देवेन्द्र प्रताप
वर्ष 2008 में आयी अमेरिकी आर्थिक मंदी ने न सिर्फ अमेरिका को बल्कि एक मायने में समस्त विश्व को अपने चपेट में लिया था। इसकी गम्भीरता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 2009 में हुए जी-20 सम्मेलन में आर्थिक मंदी ही केन्द्रीय मुद्दा था। आज जबकि एक साल बाद पुन: जी-20 देशों का कनाडा में सम्मेलन होने जा रहा है ऐसे में आर्थिक मंदी और उससे निपटने के लिए पिछले सम्मेलन में किए गये वादों और उसके प्रयासों को याद करना निहायत जरूरी है।
इतिहास के आइने से
दो साल पहले अमेरिका में आयी मंदी का असर इतना तगड़ा था कि सिर्फ 2008 में ही मात्र एक साल के अन्दर वहां के पूंजीपतियों ने अपने मुनाफे को बचाने के लिए 26 लाख को नौकरी से निकाल दिया था। 1930 की आर्थिक मंदी के बाद जब पूंजीपतियों के बीच बाजार के बंटवारे के हुए द्वितीय विश्व युद्ध हुआ था तो उस समय भी जबरदस्त तौर पर बेरोजगारी बढ़ी थी। लेकिन वर्तमान आर्थिक मंदी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हंै। अमेरिका में दिसंबर 2008 में यानी सिर्फ एक माह में पाँच लाख 24 हज़ार लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। दिसंबर में जो नौकरियाँ घटीं उनमें से अधिकतर सर्विस सैक्टर की थीं जहाँ दो लाख 73 हज़ार लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। नवंबर में अमरीका में पाँच लाख 84 हज़ार नौकरियाँ गईं जबकि अक्तूबर में चार लाख 23 हज़ार नौकरियाँ गई थीं।वर्ष 2008 में अमेरिका में पैदा हुई बेरोजगारी पिछले 16 सालों में सबसे ज्यादा थी। दिसंबर 2008 में बेरोजगारी की दर 7.2 प्रतिशत पर पहंच गयी थी। जबकि यही फरवरी 2009 में बेरोगारी दर 8 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गयी थी।विमान कंपनी बोइंग ने भी इस साल 4500 जबकि टाटा स्टील की सहायक कंपनी कोरस ने 3500 लोगों को नौकरी से बाहर किया। कोरस के इन कर्मचारियों में से सिफऱ् ब्रिटेन में ही 2500 लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। गौरतलब है कि कोरस के दुनियां भर में 42 हज़ार कर्मचारी हैं, जिनमें से 24 हज़ार सिर्फ ब्रिटेन में हैं। अमरीका की कार कंपनी जनरल मोटर्स ने भी पूरी दुनिया में अपने कारखानों में काम करने वाले करीब 47 हज़ार मजदूरों और कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया था। उसे दुनिया भर के अपने 14 कारखानों को बंद करना पड़ा था। यही काम अमेरिका की क्राइसलर कंपनी ने भी किया था। इस मंदी के कारण उसे तीन हजार मजदूरों को नौकरी से बाहर करना पड़ा। अमेरिका की नामी गिरामी कार कम्पनी फोर्ड को 14.6 अरब डॉलर का नुकसान हुआ जो उसके लिए किसी सदमें से कम नहीं था। विश्व की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी टोयोटा को वर्ष 2008 में कारों की माँग में भारी कमी आ जाने की वजह से 150 अरब जापानी येन यानी एक अरब 65 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ था। जाहिर है पूंजीपतियों ने अपना यह तथाकथित घाटा भी मजदूरों के पेट पर लात मार कर पूरा करने का काम किया।
दुनिया भर में इस मंदी का सबसे ज्यादा असर आईटी पेशेवरों पर पड़ा था। भारत भी इससे अछूता नहीं था। वर्ष 2008 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्तूबर से दिसंबर के बीच भारत में एक मात्र आई टी क्षेत्र में ही पाँच लाख लोगों का रोजग़ार छिन गया था। यह आँकड़ा भारत के केंद्रीय श्रम मंत्रालय का है और वो भी सिफऱ् संगठित क्षेत्रों से मिली सूचनाओं के आधार पर। इनमें गुजरात के हीरा कारोबारियों के यहाँ काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर शामिल नहीं हैं और ना सिर्फ एक साल पहले तक गुलजार नजऱ आने वाले कर्नाटक में बेल्लारी के लौह खनन उद्योगों में रोजग़ार गँवाने वालों की गिनती है। यही वह पृष्ठभूमि थी जब पिछले वर्ष लंदन में दुनिया भर से बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी लंदन में इकठ्ठा हुए थे। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिएअमरीकी राष्ट्रपति ओबामा समेत कई बड़े नेता लंदन पहुंच चुके थे। चेहरे पर मुखौटे लगाए और चोग़े पहने हुए पूंजीवाद विरोधी नारे लगाने वाले हज़ारों प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस की छिटपुट झड़पें भी हुईं थीं। मैट्रोपोलिटन पुलिस के अनुसार पिछली बार सुरक्षा इंतज़ामों के लिए ढाई हज़ार अतिरिक्त पुलिसकर्मी लगाये गये थे औऱ इस सुरक्षा अभियान पर कऱीब एक करोड़ डॉलर खर्च किया गया था। इन सबके बावजूद सम्मेलन हुआ और सम्मेलन में मौजूद देशों ने और खासकर अमेरिका और ब्रिटेन ने दुनिया को यह भरोसा दिलाया कि जल्दी ही इस आर्थिक मंदी से निपट लिया जायेगा। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के एक अनुमान के अनुसार वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से एक साल के अन्दर समूची दुनिया में पाँच करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी गँवानी पड़ी। आईएलओ के महानिदेशक हुआन सोमाविया का कहना है कि इसकी वजह से दुनिया भर में बेरोजग़ारी का आंकड़ा करीब सात प्रतिशत तक पहुँच गया। श्रम संगठन का कहना है, कि फि़लिप्स, होमडिपो, आईएनजी और कैटरपिलर जैसी कंपनियों में हुई छँटनियों के कारण बेरोजगारी में भयंकर इजाफा हुआ है। पिछले वर्ष सबसे अधिक नई नौकरियों के अवसर एशिया में पैदा हुए, दुनिया भर की कुल नई नौकरियों का 57 प्रतिशत हिस्सा एशियाई देशों से आया। आईएलओ का कहना है कि दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी की वजह से एशियाई देशों के नौकरी बाज़ार में बढ़ोतरी की जगह छँटनी का दौर शुरु हो गया जिसने दुनिया के सामने एक भयंकर संकट पैदा कर दिया है। भारत और चीन जैसे देश दुनिया भर से मिलने वाले ऑर्डरों की कमी की वजह से बुरी हालत में जा पहुंच सकते हैं। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था की खुद अपनी ही संस्थाएं पिछले वर्ष हुए सम्मेलन में किए गए वायदों की कलई खोल देती हैं।
जनता का विरोध, हुक्मरानों की चुप्पी
पिछले वर्ष की तरह इस बार भी टोरंटो शहर में जी-20 सम्मेलन स्थल के बाहर शनिवार को करीब 10,000 लोगों के विरोध-प्रदर्शन के दौरान छिटपुट हिंसा भी हुई। सिन्हुआ समाचार एजेंसी के अनुसार पुलिस ने 100 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया और उन्हे तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे। जवाब में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पत्थर, बोतलें और ईटे बरसाईं और सुरक्षा घेरा तोड़ते हुए कांफ्रेंस सेंटर में दाखिल होने का प्रयास किया। इस पर काबू पाने के लिए 12,000 पुलिस अधिकारियों को तैनात किया गया था। इन प्रदर्शनकारियों के अनुसार सम्मेलन में बैठने वाले पूंजीवादी लोग ही बेरोजगारी, पर्यावरण की तबाही और अन्य मानवीय और पर्यावरणीय विभीषिकाओं के लिए जिम्मेदार हैं। उनकी बात को एक सिरे से खारिज करना इसलिए भी मुश्किल है कि इस बार कनाडा में हुए जी-20 देशों के सम्मेलन में भी नेताओं ने वही सब नाटक दोहराया जैसा कि पिछले सम्मेलन में हुआ था। पूरे सम्मेलन में विभिन्न देश इस बात को लेकर बँटे रहे कि उन्हें बजट घाटे को कम करने पर जोर देना चाहिए या आर्थिक विकास में तेज़ी लाने के लिए काम करना चाहिए।
पूंजीपती ही लेते हैं निर्णय
इस बैठक में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि तो भाग लेते ही हैं साथ ही उन देशों के पूंजीपति भी भाग लेते हैं। यूरोपीय देशों का औद्योगिक समुदाय एक पक्ष में है जबकि शेष सदस्य देशों का उद्योग जगत दूसरे पक्ष में है। भारत का प्रमुख उद्योग चैंबर फिक्की ने गैर-यूरोपीय देशों के उद्योग चैंबरों के साथ मिल कर यूरोपीय देशों की तरफ से उठाए जाने वाले संरक्षणवादी कदमों का विरोध किया। ऐसा माना जाता है कि जी-20 की बैठक में इन औद्योगिक समूहों के विचारों का काफी महत्व होता हैै। इन औद्योगिक समूहों का जी-20 की बैठक में कितना महत्व है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि टोरंटो में समूह देशों की बैठक स्थल के पास ही ये अलग से भी अपनी बैठक करते रहे। हर सदस्य देश के उद्योग चैंबर अपने देश की सरकार को मुद्दों के बारे में लगातार राय देते रहे। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि इन औद्योगिक समूहों के फैसले शीर्ष नेताओं की वार्ताओं पर भी असर डालते हैं।
तानाशाह कभी नहीं सीखता

किसी विद्वान ने हिटलर के लिए कहा था कि तानाशाह कभी नहीं सीखता। लेकिन ऐसा लगता है कि आज दुनिया के अधिकांश पूंंजीवादी देशों के हुक्मरान हिटलर के ही रास्ते को अनुसरण करने में लगे हुए हैं। ऐसे तानाशाहों की दूसरी खूबी यह होती है कि वे कभी अपनी गलती नहीं मानते। वे हमेशा ही अपनी गलतियां का ठीेकरा दूसरों के सिर पर फोड़ते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत सबसे अच्छी तरह उनके उपर लागू होती है। लेकिन कभी-कभी इतिहास में ऐसे मौके आ जाते हैं जब हुक्मरानों के सारे झूठ बेपर्दा हो जाते हैं। दो वर्ष पहले जब अमेरिका में आर्थिक मंदी आयी थी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। पहले तो उसे वहां के हुक्मरानों ने यथाशक्ति छुपाये रखने की कोशिश की लेकिन आखिरकार सच्चाई बाहर आ ही गयी। सच्चाई बाहर आने के बाद दुनिया ने देखा कि दुनिया का दादा बनने वाले अमेरिका के पास खुद अपना तन ढांकने के लिए कपड़ा नहीं है। अब चाहे वह इरान के ऊपर गुर्राए या फिर पिछले सम्मेलन की तरह ही दुनिया को नए-नए सब्जबाग दिखाए लेकिन हकीकत तो यही है कि अब उसके ऊपर भरोसा करना बेवकूफी ही होगी। शायद यही वजह थी कि इस बार हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने कनाडा में भी प्रदर्शन किया है उनकी मांगें कमोवेश वहीं हैं जो पिछले साल थीं। ऐसा लगता है कि यह एक अनवरत सिलसिला है जो चलता रहेगा। मुश्किल ही है कि दुनिया के हुक्मरान उनकी बातों पर गौर करें, कम से कम इतिहास तो यही बताता है।
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Friday, July 16, 2010

यूनियन को बदनाम करने के लिए ऐसे हुआ सर्वे

प्रबंधन को यूनियन नेताओं से ज्यादा भला बताया


संदीप राऊजी
जमशेदपुर में प्रबंधन एक कदम आगे जाकर अब प्रायोजित सर्वे करा रहा है। हाल ही में एक प्रायोजित सर्वे कराया गया जिसमें दिखाया गया है कि मजदूर अब यूनियन नेताओं पर भरोसा करने की बजाय मैनेजर साहब के पास अपनी समस्याएं लेकर जाने लगे हैं। यह हास्यास्पद सर्वे खासकर अखबारों के लिए तैयार किया गया और उसे खूब प्रचारित प्रसारित किया गया। यूनियनों को बदनाम करने के लिए जरा इस सर्वे का सर्वे करें-
लौहनगरी में टाटा स्टील व टाटा मोटर्स जैसी कंपनियों के अलावा छोटी-बड़ी करीब डेढ़ हजार कंपनियां हैं। इनकी बदौलत इस शहर की ख्याति पूरी दुनिया में तो है ही, इसे झारखंड की औद्योगिक राजधानी भी कहा जाता है। यही नहीं, यहां टाटा वर्कर्स यूनियन जैसा श्रमिक संगठन भी है, जिसके अध्यक्ष कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी रहे। इसके अलावा भी यहां सैकड़ों यूनियनें किसी न किसी रूप में सक्रिय हैं।
हाल ही में कौटिल्य विधि महाविद्यालय द्वारा टाटा स्टील, टाटा मोटर्स समेत आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र की कंपनियों के करीब 1200 मजदूरों-कर्मचारियों के बीच सर्वे कराया गया। हालांकि यह बात ओपेन सीक्रेट है कि यह घृणित काम प्रबंधन की शह पर किया गया। सर्वे में नतीजा निकाला गया कि यहां के मजदूर, ट्रेड यूनियन नेता की बजाय अपनी समस्या का निदान कराने को प्रबंधक के पास जाना ज्यादा मुनासिब समझते हैं।
सर्वे में सबसे बड़ा जो झूठ है वह यह कि 80 फीसदी मजदूर अपनी समस्या के लिए प्रबंधक के पास जाते हैं क्योंकि अब वे ज्यादा व्यवहारिक हैं। व्यवहारिक शब्द पर ध्यान दीजिएगा। सर्वे में कहा गया कि मजदूरों का मानना है कि उनके प्रबंधक सरकारी विभागों से ज्यादा डरते हैं, कानून या ट्रेड यूनियन से कम। 90 फीसदी मजदूर ट्रेड यूनियन को विश्वसनीय नहीं मानते, तो 95 फीसदी मजदूरों का मानना है कि नेता से उनके प्रबंधक ज्यादा ईमानदार हैं। इसके बावजूद करीब 70 फीसदी मजदूर प्रबंधक से काम कराने के लिए अपने साथी की सहायता लेते हैं, जबकि 20 फीसदी अकेले जाते हैं। पांच फीसदी मजदूर ही ट्रेड यूनियन लीडर से सहायता लेते हैं। जहां तक जानकारी की बात है, तो मजदूरों में पर्यावरण-प्रदूषण के बारे में जागृति बढ़ी है, तो सूचना का अधिकारी, श्रम कानून व मानवाधिकार के बारे में भी जानते हैं। यह दीगर बात है कि मजदूरों के अधिकारों, श्रमकानूनों के पालन जैसी विषयवस्तु पर कोई सर्वे नहीं कराया गया।
सर्वे में कहा गया है कि सरकारी विभाग के मामले में मजदूरों की राय स्पष्ट है। भ्रष्ट विभागों में उन्होंने फैक्ट्री इंस्पेक्टर, पीएफ विभाग, लेबर कमिश्नर को पहला, दूसरा व तीसरा स्थान दिया। उनसे जब पूछा गया कि अगर कोई आपके अधिकारों का हनन करता है, तो आप किसकी सहायता लेना पसंद करेंगे, इसमें भी 80 फीसदी ने प्रबंधक, 15 फीसदी ने सरकारी विभाग व 10 फीसदी ने कानून या कोर्ट की सहायता लेने की बात कही। पांच फीसदी ने ट्रेड यूनियन की मदद लेने की बात कही। निष्कर्ष में सर्वे पाठक को चौंकाने वाले अंदाज में बताता है कि 95 फीसदी मजदूरों ने अपनी कंपनी में किसी सरकारी अधिकारी को जांच या कार्रवाई के लिए आते नहीं देखा। कंपनियों में 10 फीसदी ही सिर्फ मैट्रिक तक पढ़े-लिखे मिले, शेष के पास इससे ज्यादा या कोई तकनीकी प्रशिक्षण था। और अंत में दुनिया का सातवां आश्चर्य यह है कि सर्वे घोषित करता कि साठ फीसदी मजदूरों को कार्यस्थल का माहौल अच्छा लगता है।
सर्वे में पूछे गए सवाल और जवाब
1. आपके प्रबंधक ईमानदार हैं : 95 -हां- 5 नहीं
2. ट्रेड यूनियन नेता विश्वसनीय हैं : 90 फीसदी-नहीं
3. श्रम कानून की कितनी जानकारी : 50-50 फीसदी
4. सबसे भ्रष्ट विभाग : फैक्ट्री इंस्पेक्टर -60, पीएफ विभाग-20, श्रम विभाग : 20
5. अधिकारों के प्रति जागरुक : 95


झूठ के ऐसे पुलिंदे टनों रोजाना पूंजीवादी अखबारों में बाक्स और हेडलाइन बनते हैं। इनसे सजग रहने का यही तरीका है कि हम इनके हथकंडों को उजागर करें। कहीं न कहीं ट्रेड यूनियनों की भी रणनीतिक गलती है। वे भी सर्वे करा सकती हैं भले ही वह न छपे लेकिन मजदूर अखबारों, वैकल्पिक मीडिया जगत में तो इन्हें स्थान मिल ही जाएगा। दूसरी बात कि अभी तक इस सर्वे के खिलाफ किसी ट्रेडयूनियन का विरोध सामने नहीं आया है जो इस झूठ को और स्थापित करने में ही मदद देगा।

महंगाई के खिलाफ ट्रेडयूनियनों की देशव्यापी हड़ताल

प्रमुख ट्रेड यूनियनें 7 सितंबर को देशव्यापी हड़ताल करेंगी
केंद्र सरकार के कर्मचारी संघ भी सात सिंतबर की हड़ताल के समर्थन में
नई दिल्ली 16 जुलाई

कांग्रेस समर्थित इंटक और वामपंथी समेत नौ प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने महंगाई और केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ 7 सितंबर को हड़ताल पर जाने का आह्वान किया है। इंटक, एआईटीयूसी, हिंद मजदूर सभा, सीटू, एआईयूटीयूसी, टीयूसीसी, एआईसीसीटीयू, यूटीयूसी और एलपीएफ के संयुक्त सम्मेलन में इसकी घोषणा की गई। इन संगठनों के नेताओं और सदस्यों ने हिस्सा लिया।
7 सितंबर की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के समर्थन में केंद्र सरकार कर्मचारी संघ भी उतर आया। केंद्र सरकार कर्मचारी संघ ने केंद्र सरकार कर्मचारियों की पहली अनिश्चितकालीन हड़ताल की 50 वीं बरसी पर आज यहां बैठक की। केंद्र सरकार कर्मचारियों ने 12जुलाई, 1960 को पहली अनिश्चित कालीन हड़ताल की थी।
आल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के महासचिव शिव गोपाल मिश्रा ने यहां बताया, 'हम हड़ताल को संभव बनाने वाले अपने कामरेडों के साहसिक प्रयासों को नहीं भुला सकते। Ó उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों ने पहली हड़ताल तब की थी जब केंद्र सरकार ने पहले वेतन आयोग की सिफारिश के आधार पर मंहगाई भत्ता के भुगतान करने और जनमत के जरिए यूनियन को मान्यता देने से इनकार कर दिया था।
भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ :बीएमएस: ने सम्मेलन का बहिष्कार किया। एआईटीयूसी के महासचिव गुरुदास दासगुप्ता ने कहा, '' भारत के इतिहास में पहली बार इंटक सहित सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियने एक साथ हैं। हम महंगाई, छंटनी, कम मजदूरी भुगतान, गरीबी और सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ एक दिन की हड़ताल पर जा रहे हैं।ÓÓ
उन्होंने कहा, '' देश में कर्मचारियों की यह अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल होगी।ÓÓ उल्लेखनीय है कि इससे पहले, 5 जुलाई को प्रमुख विपक्षी दलों द्वारा पेट्रोल एवं डीजल की कीमतें बढ़ाए जाने के खिलाफ हड़ताल की गई जिससे देश में आम जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया था।

भारतीय मजदूर संघ को नहीं फरक
नई दिल्ली 15 जुलाई
भारतीय मजदूर संघ ने आज कहा कि उसने केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बैठक का बहिष्कार किया है और 7 सितंबर को देशव्यापी हड़ताल के आह्वान से अपने को अलग रखने का निर्णय किया है क्योंकि हड़ताल की तिथि तय करने पर कोई पारस्परिक सहमति नहीं बनी।
बीएमएस ने हालांकि साफ किया कि वह भी सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करता है और उसने 25 अगस्त से देशभर में बड़े स्तर पर धरना प्रदर्शन आयोजित करने की योजना बनाई है।
बीएमएस के अध्यक्ष गिरीश अवस्थी ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, 'हम बैठक में शामिल नहीं हुए और हमने 7 सितंबर की हड़ताल में शामिल नहीं होने का निर्णय किया है।Ó
उन्होंने कहा, 'एआईटीयूसी के महासचिव गुरुदास दासगुप्ता एवं संयुक्त मंच के अन्य ट्रेड यूनियन नेताओं ने हड़ताल की तिथि बदलने का हमारा अनुरोध स्वीकार करने से इनकार कर दिया।Ó
उन्होंने कहा कि कर्नाटक में भारतीय मजदूर संघ के सदस्यों की 4 सितंबर से एक तीन दिवसीय बैठक होनी है इसलिए हमने हड़ताल की तिथि आगे बढ़ाकर नवंबर में किसी समय रखने का अनुरोध किया था।

इस्पात संयंत्र में जहरीली गैस के सम्पर्क में आने से 27 मजदूर बीमार

कोलकाता, 15 जुलाई
देश में छोटी मोटी औद्योगिक दुर्घटनाओं का जैसे सिलसिला चल पड़ा है। अभी मुंबई में गैस लीक की खबर को एक दिन भी नहीं बीता कि कोलकाता के एक इस्पात संयंत्र में गैस लीक ने ढाई दर्जन मजदूरों को अपनी चपेट में ले लिया। देश के औद्योगिक क्षेत्र में जिस तरह से सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जा रही है उससे लगता है कि भारत जल्द ही चीन को पछाड़ देगा जहां औद्योगिक दुर्घटनाएं आए दिन हो रही हैं। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की मैनेजमेंट की हवश का मजदूर शिकार हो रहे हैं। मजदूरों के खतरनाक जगहों पर काम करने के दौरान जरूरी सुरक्षा उपकरण तक नहीं मुहैया कराए जाते जिससे हादसे होते रहते हैं।
जानकारी के मुताबिक पश्चिम बंगाल स्थित दुर्गापुर इस्पात संयंत्र (डीएसपी) की भट्ठी से आज सुबह निकली कार्बन मोनोक्साइड और मीथेन गैस के सम्पर्क में आ जाने से कम से कम 27 मजदूर बीमार हो गए।
डीएसपी के संचार प्रमुख बी. कानूनगो ने बताया कि बीमार मजदूरों में से 24 को डीएसपी अस्पताल में भर्ती कराया गया है जहां चार की हालत नाजुक बताई जाती है। उन्हें आईसीयू में रखा गया है।
मामले को गैस लीक की घटना होने से इनकार करते हुए कानूनगो ने कहा कि ''गैसों के बढ़ते संकेंद्रणÓÓ की वजह से मजदूर खुद को भट्ठी के पास असहज महसूस कर रहे थे। जबकि मजदूरों ने गैस लीक होने के कारण बेहोश होने और मितली आने की बात कही है। उनमें कई की हालत खराब है।

कब बात होगी देश में औद्योगिक सुरक्षा मानकों की





मुंबई में गैस लीक के बाद कड़े कानून पर विचार
मुंबई, 15 जुलाई


मुंबई में बुधवार (14जुलाई) सुबह क्लोरीन गैस लीक होने से औद्योगिक इलाकों में सुरक्षा मानकों की धज्जियां उड़ाए जाने की घटना सामने आ गई है। देश में हर महीने गैस रिसाव के कारण मजदूरों और आस पास के लोगों के बीमार होने या उनकी मौत होने की खबर आती है। लेकिन बुधवार को देश की आर्थिक राजधानी में जब यह घटना हुई तो सरकार का इस पर ध्यान गया और इसके खिलाफ कड़े कानून बनाए जाने का विचार होने लगा है। लेकिन लाखों मजदूर जिन असुरक्षित परिस्थितियों में काम करने पर मजबूर हैं उनपर सरकार कोई ध्यान नहीं देने जा रही है।
जानकारी के मुताबिक महाराष्ट्र सरकार घातक पदार्थो के रखरखाव और उनसे होने वाले नुकसान से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने पर विचार कर रही है।
दक्षिण-मध्य मुंबई में हुई गैस रिसाव की इस घटना से 100 से अधिक लोग प्रभावित हुए थे। यहां तक कि घटनास्थल पर स्थिति संभालने पहुंचे दमकल विभाग के कर्मचारी भी गैस के प्रभाव से बच नहीं सके क्योंकि वहां भी सुरक्षा के मानक नहीं लागू होते हैं, उनके पास उचित मास्क नहीं थे। मुंबई पोर्ट ट्रस्ट (एमपीटी) के अधिकार क्षेत्र में आने वाले स्क्रैप यार्ड में 141 सिलेंडर 1997 से ही लावारिस पड़े हैं। इन्हीं में से एक में बुधवार को रिसाव हुआ। कस्टम विभाग द्वारा किसी समय पकड़े गए इन सिलेंडरों की मिल्कियत के बारे में अब एमपीटी के अधिकारी भी नहीं जानते।
उद्योगों में काम आने वाले इस प्रकार के आयातित पदार्थ अक्सर मुंबई के बंदरगाहों पर उतरते रहते हैं। लेकिन, राज्य सरकार के अधिकारी यह भी मानते हैं कि मुंबई पोर्ट ट्रस्ट के हाथ से निकलने के बाद जिन औद्योगिक इकाइयों में ऐसे खतरनाक पदार्थो का उपयोग होता है, वहां भी इनसे सुरक्षा के बहुत पुख्ता उपाय फिलहाल मौजूद नहीं हैं।

Wednesday, July 14, 2010

जिन्दल कारखाने में हादसे में दो मरे, एक घायल

रायगढ, 14 जुलाई
रायगढ स्थित जिन्दल स्टील एवं पावर लिमिटेड के पतरापाली संयंत्र में आज एक दुर्घटना में दो लोगों की मौत हो गई जबकि एक अन्य गंभीर रूप से घायल हो गया।
पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा ने यहां बताया कि कारखाने के आक्सीजन प्लांट में शाम पांच बजे के आसपास सिलिंडर में विस्फोट हो गया जिससे एक चार्ज मैन और एक मजदूर की मृत्यु हो गई जबकि एक अन्य गंभीर रूप से घायल हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है। पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है।

Monday, July 12, 2010

अवैध खनन में तीन मजदूरों की मौत

चित्रदुर्ग, (कर्नाटक) 12 जुलाई
होसादुर्ग के जेनाकल में स्थित लोह अयस्क की अवैध खननन में विस्फोटक पदार्थ में धमाका हो जाने से ३ मजदूरों की मौत हो गई जबकि तीन अन्य घायल हो गए।
उपायुक्त अमलान आदित्य बिस्वास ने पत्रकारों से कहा कि यहां से करीब 45 किमी दूर हुए इस हादसे में घायल हुए लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
उन्होंने कहा कि अवैध खनन करने वालों के खिलाफ मामला दर्ज कराया गया है।
उल्लेखनीय है कि अवैध खनन में विस्फोट से हर साल देश में सैकड़ों मजदूर मारे जाते हैं। विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले चीन में तो स्थित और भी बुरी है।

सुरंग में फंसे मजदूरों के जिंदा होने की उम्मीद
बीजिंग, 12 जुलाई

दक्षिण पश्चिमी चीन में एक निर्माणाधीन रेलवे सुरंग के ढह जाने के कारण उसमें दबे १० खनिकों के जिंदा होने की उम्मीद है। राहतकर्मियों को उनकी आवाजें सुनाई दी हैं।
राहत मुख्यालय से जुड़े एक अधिकारी सुन जुन ने बताया कि गुआंग्शी झुआंग स्वात्त क्षेत्र में बिनयांग काउंटी में निर्माणाधीन एक सुरंग का 40-50 मीटर का हिस्सा कल ढह गया और वहां काम कर रहे दस मजदूर उसमें फंस गए।
अधिकारी ने बताया'' स्थानीय समायानुसार सोमवार को सुबह दस बजे खनिकों द्वारा खटखटाने की आवाज सुनी गई थी।ÓÓ

कार्बाइड कचरा डंप करने पर झुकी मध्यप्रदेश सरकार

'वैज्ञानिक राय के बगैर नहीं जलेगा पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड का कचराÓ
इंदौर, 12 जुलाई
आखिर मध्यप्रदेश सरकार को झुकना ही पड़ा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सोमवार को भरोसा दिलाया कि भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड फैक्टरी के जहरीले कचरे को पीथमपुर के औद्योगिक कचरा निपटान संयंत्र में वैज्ञानिक राय के बगैर नहीं जलाया जाएगा।
चौहान ने कहा, 'यूनियन कार्बाइड के कचरे को पीथमपुर में वैज्ञानिक राय के बगैर नहीं जलाया जाएगा, क्योंकि यह सीधे जनता से जुड़ा मामला है।Ó
पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र स्थित औद्योगिक कचरा निपटान संयंत्र के पास तारपुरा नाम का गांव बसा है। गांववाले और कुछ गैर सरकारी संगठन यूनियन कार्बाइड फैक्टरी के जहरीले कचरे को इस संयंत्र के भस्मक मे जलाने की योजना का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे इंसानी आबादी और आबो..हवा पर खतरनाक असर पड़ेगा।

Sunday, July 11, 2010

बहरीन हादसे में मारा गया भारतीय चालक

दुबई, 11 जुलाई
बहरीन के प्रमुख राजमार्ग पर एक के्रन के पलट जाने से इसके भारतीय चालक की मौत हो गई।
स्थानीय समाचार गल्फ डेली न्यूज में छपी खबर के अनुसार कल माधवन सुदर्शनन :51: जब मोबाइल के्रन चला रहा था तो वाहन अवरोधक से टकराने के बाद पलट गया।
वह हिद्द में मनामा से खलीफा बिन सलमान राजमार्ग पर जा रहा था। नागरिक रक्षा दलों को वाहन का क्षतिग्रस्त ढांचा काटकर उसका शव निकालना पड़ा।
केरल के तिरूवनंतपुरम का रहने वाला सुदर्शनन पिछले 13 साल से डेल्मन प्रीकास्ट कंपनी के लिए वाहन चालक का काम करता था। भारत में उसके परिवार में पत्नी और दो बच्चे हैं।
खबर के अनुसार कंपनी उसके शव को भारत भिजवाने का प्रबंध कर रही है।
कंपनी के महाप्रबंधक जान मोतराम ने कहा, ''हम यातायात रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं ताकि पता चल सके कि दुर्घटना कैसे हुई।ÓÓ

पर्यावरण मंत्री को भी नहीं पता कैसे रातों-रात दफना दिया गया कार्बाइड का कचरा


तारपुरावासियों को डरा रहा है यूनियन कार्बाइड का कचरा
रमेश को घेरा गांववासियों ने, दिखाए जख्म
हर्षवर्धन प्रकाश, इंदौर, 11 जुलाई


मध्यप्रदेश के पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में करीब 1500 की आबादी वाले एक गुमनाम से गांव तारपुरा के निवासियों को भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड फैक्टरी का जहरीला कचरा डरा रहा है। शनिवार को तारपुरा पहुंचे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा, 'मुझे पता नहीं है कि पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड का कचरा दो साल पहले हड़बड़ी में रातों-रात क्यों दफना दिया गया। मैं भरोसा दिलाता हूं कि आगे ऐसा नहीं होगा।Ó
दिसंबर 1983 में विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के बाद से बंद पड़े कारखाने के करीब 40 टन ठोस अपशिष्ट को करीब दो साल पहले तारपुरा से करीब 500 मीटर दूर एक घातक कचरा निपटान संयंत्र में गोपनीय ढंग से दफना दिया गया था। गांववासियों की शिकायत है कि इसके बाद नजदीकी जलस्त्रोत प्रदूषित हो गए।
अब यूनियन कार्बाइड के करीब 350 टन जहरीले कचरे को इसी संयंत्र में भस्म करने की योजना कागजों पर है, जिससे आशंकित गांववालों ने सड़क पर उतरकर मोर्चा खोल दिया है।
इंदौर से कोई 30 किलोमीटर दूर तारपुरा में 8 जुलाई को भीड़ ने उन दो वाहनों को रोककर नुकसान पहुंचाया, जो इस संयंत्र में एक टेक्सटाइल फैक्टरी का कचरा ले जा रहे थे।
इसके दो दिन बाद यानी 10 जुलाई को केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को गांववालों के जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा, जब वह पीथमपुर स्थित घातक अपशिष्ट निपटान संयंत्र का निरीक्षण करने पहुंचे।
तख्तियां थामे गांववालों ने रमेश को घेर लिया और उनसे इस संयंत्र को बंद करने की मांग करने लगे। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी थीं।
नाराज भीड़ के सवालों से घिरे रमेश ने प्रदर्शनकारियों को भरोसा दिलाया कि आबो-हवा और इंसानी आबादी की सुरक्षा सुनिश्चित किए बगैर यूनियन कार्बाइड के कचरे का निपटारा नहीं किया जाएगा। उन्होंने साफ किया कि यूनियन कार्बाइड के कचरे को पीथमपुर के घातक कचरा निपटान संयंत्र में जलाने को लेकर अभी अंतिम फैसला नहीं हुआ है।
बहरहाल, खुद वन और पर्यावरण मंत्री भी मानते हैं कि एक आबाद गांव के पास घातक कचरे का निपटारा करने वाले संयंत्र का संचालन 'चिंता का विषयÓ है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि यूनियन कार्बाइड के कचरे का निपटारा केंद्र और राज्य सरकार के आपसी तालमेल और पारदर्शी ढंग से किया जाएगा। इससे पहले स्थानीय आबादी को भरोसे में लिया जाएगा।

मंदी से उबर गए उद्योग, सस्ती मजदूरी से बढ़ा रहे मुनाफा

पहली तिमाही में इंंदौर सेज से निर्यात 220 फीसद बढ़ा
इंदौर, 11 जुलाई


इंदौर के पास पीथमपुर में स्थित विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) से निर्यात मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में लगभग 220 फीसद बढ़ा और 276 करोड़ रुपए हो गया जिसे वैश्विक मांग में उछाल का संकेत माना जा सकता है। लेकिन यहां मजदूरों की तनख्वाहें मंदी के दौर की ही हैं। मजदूर में एका न होने से और कोई एक सशक्त यूनियन न होने से उनकी मजदूरी वहीं की वहीं है।
देश के इस अकेले ग्रीनफील्ड बहुउत्पादीय सेज से पिछले साल की समान अवधि में महज 86 करोड़ रुपए का निर्यात किया गया था, जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक मंदी की चपेट में थीं।
इंदौर सेज के विकास आयुक्त एके राठौर ने बताया, 'आंकड़े साफ कह रहे हैं कि निर्यात क्षेत्र मंदी के दौर से तेजी से उबरा है। वित्तीय वर्ष 2009..10 में इंदौर सेज से निर्यात करीब 15 फीसद बढ़कर 494 करोड़ रुपए हो गया था। मौजूदा वित्तीय वर्ष की शुरूआत में निर्यात केे रुझान शानदार हैं।Ó
उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 2010..11 के पहले तीन महीनों मे इंदौर सेज से हुए कुल कारोबार में भी पिछले साल के मुकाबले 200 फीसद का इजाफा हुआ और यह 387 करोड़ रुपए हो गया।
राठौर ने बताया कि 1100 हेक्टेेयर में फैले इंदौर सेज में अलग..अलग औद्योगिक परियोजनाओं मे 30 जून तक कुल 2,125 करोड़ रुपए का निवेश किया जा चुका है।
इंदौर सेज में फिलहाल इंजीनियरिंग, फार्मा, वस्त्र निर्माण और खाद्य प्रसंस्करण समेत अलग..अलग क्षेत्रों की 25 औद्योगिक इकाइयां चल रही हैं, वहीं 10 अन्य इकाइयों के निर्माण का काम जारी है। सेज 10,000 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा है।