Friday, June 4, 2010

यूपी बिहार के मजदूर बंबई में कैसे जी रहे हैं

मुंबई, शुक्रवार, ४ जून
यूपी और बिहार से आए मजदूर कैसे मुंबई महानगरी में अपनी आजीविका के लिए जी रहे हैं यह खबर इस बात की बानगी है। बृहस्पितवार को एक मजदूर निर्माणाधीन इमारत की १२वीं मंजिल से रात में गिर गया। हालांकि वह बच गया लेकिन अगर वह नहीं बचता तो मुंबई में रोजाना मर रहे हजारों मजदूरों की फेहरिश्त में उसका भी नाम जुड़ जाता।
जानकारी के अनुसार कुर्ला में 28 साल का एक युवा बढ़ई निर्माणाधीन इमारत की 12वीं मंजिल से गिरकर भी जिंदा बच गया। अमरेंद्र राय नाम के इस शख्स का सिर्फ एक पांव फ्रैक्चर हुआ और सिर में कुछ चोटें आईं। उन्होंने बताया कि किस तरह चौथी मंजिल पर लगे एक जाल ने उसकी जान बचाई। हालांकि तेज गति से गिरने के कारण जाल उन्हें पूरी तरह संभाल नहीं पाया और टूट गया, अलबत्ता यह अमरेंद्र की जिंदगी बचाने के लिए पर्याप्त था। शुक्र है, वे अब फिर अपने बीवी, बच्चों को देख पाएंगे। अमरेंद्र मूल रूप से बिहार के गोपालगंज के रहने वाले हैं और यहां इस बिल्डिंग में बतौर बढई का काम कर रहे थे। ठेकेदार ने उन्हें वहीं सोने की इजाजत दे दी थी। महज 3,000 रुपये कमाने वाले अमरेंद्र के लिए मुंबई में ठहरने की कोई जगह ले पाना बेहद मुश्किल था, इसीलिए वह इसी अंडर कंस्ट्रक्शन इमारत की 12वीं मंजिल सोते थे। गुरुवार रात वह सोए थे। सुबह 3 बजे वह पेशाब करने गए और संतुलन बिगड़ जाने से नीचे गिर गए।
मुंबई में ही क्यों देश के किसी भी कोने में मजदूरों की हालत इससे भी बदतर है। ठेकेदार मनमानी शर्तों पर और न्यूनतम वेतन पर मजदूरों को रख लेते हैं । न उनके स्वास्थ्य की चिंता होती है न उसके ठहरने आदि की। केंद्र ने भी बखूबी उन्हें कानून का डंडा सौंप दिया है।

साथी की मौत पर मुंगेर में उबले रेलकर्मी

रेलवे कर्मी की मौत के बाद फूटा गुस्सा



मारा गया मजदूर









-ठेकेदार के ट्रैक्टर से कुचलकर रेलकर्मी की मौत पर हंगामा

-दो जवानों की रायफलें छीनीं

जमालपुर (मुंगेर-बिहार), शुक्रवार, ४ जून : स्थानीय रेल कारखाने में शुक्रवार को सुबह ट्रैक्टर से कुचलकर कर्मचारी की मौत से आक्रोशित रेलकर्मियों ने ट्रैक्टर को आग के हवाले कदिया। आरपीएफ जवानों ने जब लाठियां भांजनी शुरू की तो रेल कर्मियों का गुस्सा और भड़क गया। मामला बिगड़ते देख पुलिस को बुलाया गया, लेकिन उसे भी पीछे हटना पड़ा। सैप के दो जवानों की इंसास रायफल को भी रेल कर्मियों ने छीन लिया। पुलिस ने हवाई फायरिंग भी की। पथराव में आरपीएफ जवान परमेश्वर सिंह की मौत हो गयी। बताया जा रहा है कि इसमें प्रबंधन की ढिलाई के चलते यह हादसा हुआ। रेलकर्मियों ने कई बार ठेकेदारों की लापरवाही के खिलाफ शिकायतें दर्ज कीं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

सौ साल से भी पुराने इस कारखाने में ठेकेदारी को इजाजत दे गई है और ठेकेदार सुरक्षा मानकों का ख्याल नहीं रखते।जानकारी के अनुसार सुबह करीब आठ बजे ट्रैक्टर से कुचलकर क्रेन शाप में कार्यरत महेन्द्र मंडल (57) की मृत्यु हो गयी। मंडल जमालपुर के केशोपुर का निवासी था। ट्रैक्टर कारखाने के एक ठेकेदार का था। मृत आरपीएफ जवान परमेश्वर सिंह जमुई जिले का रहने वाला था। जवान किसी तरह डीएम को बचाकर कारखाने से बाहर लेकर आये। इसके बाद एसपी ने फोर्स के साथ कर्मियों को कुछ दूर तक खदेड़ा, लेकिन मामला संभलते न देख वह भी पीछे हट गये। बड़े अधिकारी घटनास्थल पर कैम्प कर रहे हैं।

बिहार के मुंगेर जिला मुख्यालय से आठ किमी दूर स्थित जमालपुर रेलवे कारखाना में शुक्रवार को श्रमिकों ने अपनी मांगों को लेकर हड़ताल बोल दिया जिसे तोड़ने के लिए प्रबंधन ने बल प्रयोग का अपना पुराना नुस्खा आजमाया। इसके बाद तो श्रमिकों का गुस्सा फूट पड़ा। पुलिस ने जब डंडा भांजना शुरू किया तो मजदूरों ने एकता के बल पर उनके हमले को कुंद कर दिया और इसके चलते कुछ सुरक्षाकर्मियों की धुनाई भी हो गई।

कुशल कारीगरों की बहुतायत से अंग्रेजों ने बनाया यहां कारखाना
जमालपुर कारखाना सुंदर पहाड़ियों, मौसमी झरनों और झीलों से घिरा एक जीवंत शहर है। इस शहर को ब्रितानी हुकूमत के दौरान बसाया गया था और उस समय यहां रेलवे इंजीनियरिंग कालेज खोला गया था। औपनिवेशिक शासकों नेरेलवे कारखाना लगाने के लिए इस जगह को इसलिए चुना क्योंकि यहां कुशल मजदूरों और कारीगरों की पर्याप्त संख्या थी। ये मजदूर बंगाल और उड़ीसा के नवाबों के लिए स्टील की बंदूकें बनाते थे। इसके अलावा इस जगह की खूबसूरती भी अंग्रेजों को खींच लाई। यह शहर एक तरफ से पहा़ड़ियों से घिरा है तो दूसरी तरफ सात किमी पर ही गंगा की अविरल धारा है।
श्रमिकों ने देश का पहला भाप इंजन यहीं बनाया
जमालपुर कारखाना जब स्थापित हुआ तो यहां भाप के इंजन बनाने का काम शुरु हुआ। 1899 से 1923 के बीच यहां कुल 216 ब्वाइलर बनाए गए, जोकि भाप के इंजन के महत्वपूर्ण हिस्से होते थे। पहली रोलिंग मिल केवल रेलवे की ही नहीं देश की भी यहां 1870 में स्थापित हुई।

हड़तालों की अकाल मौत से उपजते सवाल

(प्रणव एन का लिखा यह विश्लेषणात्मक लेख मुंबई से प्रकाशित स्वतंत्र जनसमाचार के ताजा अंक में छपा है। इसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं। -मजदूरनामा टीम)
पहले मोटरमैन और फिर एयर इंडिया कर्मी
प्रणव एन.
हमारे चारों तरफ का माहौल कैसे मजदूर विरोधी, कर्मचारी विरोधी होता जा रहा है, इसके उदाहरण हमें लगातार मिल रहे हैं, घटनाओं के जरिए भी और घटनाओं के अभाव के जरिए भी। आखिर सदियों के संघर्ष से हासिल अधिकार और रियायतें मजदूर तबकों से अलग-अलग बहानों से छीने जा रहे हैं लगातार.. और व्यापक स्तर पर मजदूर वर्ग खामोश है, यह भी अपने आप में बहुत कुछ बताता है। चाहे आठ घंटे काम का सवाल हो या नियमित छुट्टियों का या फिर ओवरटाइम आदि का - मजदूर वर्ग इन सब पर लगातार हमला चुपचाप झेलता रहा है तो यह इस बात का भी सबूत है कि चारों ओर मजदूर विरोधी ताकतें इस तरह काबिज हैं कि मजदूर अपने हक का सवाल उठाने की स्थिति में भी नहीं रह गया है। यह तो हुआ घटनाओं का अभाव। मगर जो इक्का-दुक्का घटनाएं हो रही हैं, वे भी मजदूरों के लिए कम बड़ा सबक नहीं है। उन घटनाओं को जिस तरह दबाया जा रहा है वह भी मजदूर तबकों को संदेश देने का एक जरिया है कि अगर तुमने अपनी बात रखने की हिम्मत की तो इसी तरह कुचल दिए जाओगे। ताजा उदाहरण तो एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल का है, लेकिन इससे पहले मुंबई में हुई मोटरमैनों की हड़ताल का वाकया याद कर लेना बेहतर होगा।मुंबई लोकल ट्रेन चलाने वाले मोटर मैनों की 3-4 मई को हुई हड़ताल ने पूरी मुंबई को अस्तव्यस्त कर दिया था। मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल सेवा ठप हो गई थी। निश्चित रूप से यह उस हड़ताल की सफलता थी जिसके लिए मोटरमैनों और उनके संगठन को बधाई दी जानी चाहिए थी, मगर, पूरी मुंबई जैसे उन पर बौखलाई हुई थी। अलग-अलग स्टेशनों पर घंटों से अटके यात्री अपनी परेशानियों के लिए उन्हें कोस रहे थे। कई स्टेशनों पर यात्रियों का गुस्सा तोडफ़ोड़ के रूप में प्रकट हुआ।देखा जाए, तो मोटरमैनों ने अपने हक (वे छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग कर रहे थे) के लिए संघर्ष का रास्ता चुना था। और वे किसी असंवैधानिक, गैरकानूनी या समाजविरोधी रास्ते पर नहीं बढ़े थे। संगठित रूप में सरकार के सामने अपनी मांगें रखना और उन मांगों पर जोर देने के लिए हड़ताल करना कर्मचारियों के मान्य अधिकारों में शामिल हैं। इसके बावजूद मुंबई में इन्हीं मोटरमैनों की बदौलत रोज लोकल सेवा का लाभ उठाने वाले यात्री इन पर बिफरे पड़े थे। मीडिया इन्हें इस रूप में चित्रित कर रहा था जैसे ये देश विरोधी तत्व हों। संसद में सारे दलों का जोर इस बात पर था कि जैसे भी हो तुरंत हड़ताल तुड़वाई जानी चाहिए। सीपीएम और सीपीआई के कुछ सांसदनों ने नाम के लिए ही सही, पर हड़ताली मोटरमैनों के साथ दिखने की कोशिश जरूर की, पर आम तौर पर सभी दलों के सांसद हड़ताल को कुचल दिए जाने के पक्ष में दिख रहे थे। कहा जा रहा था कि कुछ लोगों के गिरोह को इस बात की छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वे हमारी वित्तीय राजधानी को जब चाहें बंधक बना लें। शिवसेना ने इस हड़ताल का समर्थन किया था। मगर, संसद में अन्य दलों की तरफ से हो रही लानत मलामत और मुंबई में लोकल यात्रियों के गुस्से को देखते हुए वह भी अपने रुख पर कायम नहीं रह सकी। इस पूरे विवाद के बीच में शिवसेना प्रमुख के आदेश का हवाला देते हुए शिवसेना ने खुद को इस हड़ताल से अलग कर लिया। राज ठाकरे की एमएनएस ने तो खुली गुंडागर्दी दिखाते हुए धमकी दी कि मोटरमैन अपने आप हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट आएं वरना एमएनएस अपनी ही स्टाइल में हड़ताल तुड़वाएगी।चारों तरफ से बल पाकर सरकार ने भी एस्मा लगा कर हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। मोटरमैनों पर गिरतारी की तलवार लटकने लगी। आखिर इस चौतरफा दबाव में मोटरमैनों को बिना शर्त हड़ताल वापस लेनी पड़ी।कुछ ऐसी ही गति एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल की भी हुई। एयर कॉरपोरेशन एप्लॉयीज यूनियन (एसीईयू) और ऑल इंडिया एयरक्राट इंजीनियर्स एसोसिएशन (एआईएईए) द्वारा आहूत हड़ताल पूरी तरह सफल रही। दो दिनों तक एयर इडिया की उड़ानें अस्त व्यस्त रहीं। इस बार भी दृश्य करीब-करीब वैसा ही थी जैसा मोटरमैनों की हड़ताल के वक्त था। यानी हड़ताल सफल लेकिन नतीजा ठन-ठन गोपाल। चारों तरफ से शोर मच रहा था, हड़ताल के कारणों को समझना तो दूर की बात, कोई उस बारे में कुछ सुनने को भी तैयार नहीं था। इस बार तो हड़ताल की भत्र्सना करने के लिए मेंगलूर हादसे का बहाना भी था। कहा जा रहा था कि हड़ताली कर्मचारी कितने संवेदनहीन हैं कि मेंगलूर हादसा के दो दिनों बाद ही हड़ताल पर चले गए। यह पूछने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही थी आखिर कर्मचारियों का मुंह बंद करने वाला आदेश यानी उनके मीडिया से बात करने पर रोक लगाने वाला आदेश जारी करने की जरूरत एयर इडिया प्रबंधन को क्यों पड़ी। वहां ऐसी क्या खिचड़ी पकाई जा रही है जिसे पूरी दुनिया से गुप्त रखना उन्हें बहुत जरूरी लग रहा है। हद तो यह कि एयर इंडिया के अरबों रुपए घाटे का ठीकरा भी इन्हीं कर्मचारियों के सर फोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि एयर इंडिया को घाटे से उबारने के नाम पर जिन फॉर्युलों पर काम चल रहा है उसका खामियाजा भी एयर इंडिया कर्मचारियों को ही भुगतना होगा। इसीलिए कर्मचारी संगठनों की तरफ से मीडिया में बयानबाजी का सिलसिला शुरू हो जाने से पहले ही उनकी आवाज दबा देने के लिए यह आदेश निकाला गया जिसे हाई कोर्ट के फैसले पर आधारित बताया जा रहा है।बहरहाल, कर्मचारियों के मीडिया से बात करने पर रोक के इस आदेश के खिलाफ दो यूनियनों - एसीईयू और एआईएईए - ने हड़ताल की घोषणा कर दी। हड़ताल प्रभावी रही और एयर इंडिया को 100 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। लेकिन, हड़ताल होते ही इस बार भी हड़ताल के खिलाफ अभियान शुरू हो गया। मीडिया बढ़-चढ़ कर हड़ताली कर्मचारियों को संवेदनहीन, गैर जिमेदार, स्वार्थी वगैरह बता रहा था। उनकी मांगों पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी। मगर, इस बार बात सरकार और मीडिया तक सीमित नहीं रही। अदालत ने भी हड़ताल को कुचलने में सक्रिय भूमिका निभाई। दिल्ली हाई कोर्ट ने आनन फानन हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। केंद्रीय कैबिनेट ने नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को पूरी छूट दे दी कि जैसे चाहें इस हड़ताल से निपटें। नतीजा यह हुआ कि कोर्ट के आदेश के बाद हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट जाने के बावजूद एयर इंडिया के कर्मचारियों को उनकी गुस्ताखी की पूरी सजा मिली। हड़ताली कर्मचारियों में से 58 को बर्खास्त कर दिया गया। 24 कर्मचारी निलंबित किए गए। बहुतों को नोटिस दिया गया। दोनों यूनियनों की मान्यता समाप्त कर दी गई। ऐसे कड़े कदम एयर इंडिया के इतिहास में कभी नहीं उठाए गए थे। इन कठोर कदमों के विरोध में एसीईयू ने 12 जून से फिर हड़ताल पर जाने की धमकी दी है।सवाल यह है कि क्या इन घटनाओं में हमारे लिए कोई सबक है? आखिर हड़ताल कोई अजूबी चीज तो नहीं हैं। स्वतंत्र भारत में हड़तालें होती ही रही हैं। अपने हकों की मांग करते, सरकार या प्रबंधन से लड़कर उन्हें हासिल करते मजदूर न तो विकास विरोधी साबित हुए और न ही उससे देश का कोई नुकसान हुआ। उल्टे, बड़ी संया में लोगों की परचेजिंग पावर बढऩे से अर्थव्यवस्था में गति ही पैदा हुई। मगर, यह दो दशक पहले तक की सचाई है। 1990 के बाद से धीरे-धीरे यूनियनें अप्रासंगिक सी होती चली गई हैं। अब अपवादों को छोड़ दें तो न तो कहीं सक्रिय यूनियनें दिखती हैं, न ही उनके तौर-तरीके। प्रबंधन मजदूरों की तरफ से चूं तक सुनने के मूड में नहीं होता। मीडिया का रुख तो हमें हर हड़ताल में दिखता है। सरकार भी हमेशा हड़ताल के खिलाफ और प्रबंधन के पक्ष में ही मोर्चा बांधे रहती है। अदालतें भी मजदूरों के हितों या हकों की आवाज सुनने को तैयार नहीं रहती। अपने हकों के लिए जूझते हुए मजदूर उसे भी अच्छे नहीं लगते।एक वाक्य में कहा जाए तो आज सिर्फ मजदूर ही मजदूर के साथ बचा है। उसके अलावा कोई भी तबका उसके साथ खड़ा होने वाला नहीं रह गया है। या तो अपने हितों को देखते हुए या फिर मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार होकर नासमझी में, पर सभी तबके मजदूर विरोधी खेमे में खड़े नजर आ रहे हैं।ऐसे में, सवाल है कि मजदूरों को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए? क्या विरोधी वर्गों की साजिशों को सफल हो जाने देना चाहिए?कोई भी इसंाफ पसंद व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि मजदूरों को अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए। लेकिन लडऩे का ढंग जरूर बदलना चाहिए। अगर एक तरह की शैली पिट रही हो, तो शैली बदलना तो युद्ध कला का एक अहम हिस्सा है। मजदूर तबकों को या इनके सचेतन हिस्सों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि मोटर मैनों की हड़ताल के दौरान राज ठाकरे ने खुली धमकी देने की जुर्रत की। वे कौन से दबाव रहे जिनकी वजह से शिवसेना को समर्थन वापस लेना पड़ गया?बेशक इन दोनों के पीछे मुंबई के वे आम लोग थे जो रोज लोकल से यात्रा करते हैं और जिन्हें मोटरमैनों की इस हड़ताल की वजह से परेशानियां झेलनी पड़ रही थीं। इन यात्रियों का बड़ा हिस्सा खुद कामगार है जो अपने कार्यस्थल पहुंचने की जद्दोजहद में था। मोटरमैनों की हड़ताल छठे वेतन आयोग के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हुई थी जिससे इन यात्रियों के हितों का कोई लेना-देना नहीं था, हां हड़ताल का खामियाजा जरूर इन्हें भुगतना पड़ रहा था, दतर न पहुंच पाने की वजह से एक दिन का वेतन कटवा कर या एक सीएल कटवा कर। ऐसे में इनका गुस्सा स्वाभाविक था। इसी गुस्से का फायदा तममा मजदूर विरोधी तबकों ने उठाया और हड़ताल के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया कि एसमा लगाने की घोषणा करने में सरकार को कोई हिचक नहीं हुई।यहीं मजदूर तबकों को अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है। उन्हें यह समझना होगा कि सरकार, पुलिस, अदालतें, मीडिया सब भले प्रबंधन की तरफ खड़ी हो जाएं देश की मेहनतकश आबादी कभी उनके खिलाफ नहीं हो सकती। वह गुमराह तो हो सकती है मगर स्थायी तौर पर उनके खिलाफ नहीं हो सकती क्योंकि उसके हित मजदूर वर्ग से जुड़े हुए हैं। इसलिए आज की जरूरत यह है कि मजदूर प्रबंधन, सरकार और पूरे सरकारी तंत्र के खिलाफ संगठित हो और साथ ही समाज के अन्य मेहनतकश तबकों को अपने साथ ले। ये दोनों काम एक साथ हो सकते हैं। शर्त सिर्फ यह है कि मजदूरों को अपनी दृष्टि का थोड़ा विस्तार करना होगा। वेतन-भत्ता बढ़ाने वाली अर्थवादी मांगों से ऊपर उठते हुए राजनीतिक लड़ाई को ओर बढऩा होगा। दूसरे शब्दों में उन्हें सिर्फ एयर इंडियाकर्मी या रेलवे मोटरमैन की तरह नहीं बल्कि एक मजदूर के रूप में सोचना होगा और ऐसे बड़े मुद्दे तलाशने होंगे जिनसे सभी मजदूरों के हित जुड़ते हों चाहे वह रेलकर्मी हो या विद्युतकर्मी या गांव का खेतहीन मजदूर हो या फिर शहर का दिहाड़ी मजदूर।सोचिए अगर मुंबई में मोटरमैनों ने कोई ऐसा मुद्दा चुना होता जिससे लोकल में यात्रा करते लोगों के हित भी जुड़े होते तो क्या वे इस हड़ताल से इतने बौखलाए हुए होते? अगर उनका समर्थन इस हड़ताल को होता क्या शिवसेना इस हड़ताल को समर्थन देकर भी इस तरह से मुकरती या राज ठाकरे कर्मचारियों को इस तरह धमकाने की हिम्मत करते? और क्या ऐसा होता कि एयर इंडिया के कर्मचारियों पर गाज गिर रही है तो देश भर की अन्य सारी यूनियनें उदासीन बैठी हुई हों। एक वाक्य में कहा जाए तो अब एक खास ट्रेड तक सीमित लड़ाई का दौर नहीं रहा। अब वक्त आ गया है इस लड़ाई को व्यापक रूप देने का। ऐसे संगठन भी अस्तित्व में आ रहे हैं, वे मंच भी उपलब्ध हो रहे हैं जो ऐसी व्यापक लड़ाई को संभव बना सकते हैं। उदाहरण के लिए ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल बन चुकी है जो पूरे देश के सर्वहारा वर्ग का जनराजनीतिक संगठन है। इससे जुड़कर अलग-अलग फील्ड के मजदूर भी साझा लड़ाई को अंजाम दे सकते हैं। इसी प्रकार मजदूरनामा नाम का एक ब्लॉग (mazdoornama.blogspot.com) भी इस साल मई दिवस पर अस्तित्व में आ चुका है जो पूरे देश के मजदूर वर्ग से जुड़ी खबरों को मजदूर वर्ग के ऐंगल से प्रस्तुत करता है। अंत में बात वहीं आकर रुकती है कि इन औजारों का इस्तेमाल तो देश के मजदूरों को ही करना है। अगर मजदूर वर्ग और खासकर उसका सचेतन हिस्सा इन औजारों के महत्व को पूरी तरह नहीं समझता या इनका अधिकाधिक इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय नहीं होता तो ये औजार भी जंग खाकर बेकार हो जाएंगे।

बैंक ऑफ राजस्थान में हड़ताल

कर्मचारियों ने विलय के विरोध में किया प्रदर्शन
शुक्रवार ४ जून, श्रीगंगानगर- बैंक ऑफ राजस्थान के आइसीआइसीआइ बैंक में प्रस्तावित विलयीकरण के विरोध में शुक्रवार को हड़ताल रही। बैंक कर्मचारी यूनियन के आह्वान पर पूरे देश में राजस्थान बैंक की शाखाएं दो दिन तक बंद रहेंगी तथा बैंक के कर्मचारी धरने प्रदर्शन में भाग लेंगे। गंगानगर में भी बैंक ऑफ राजस्थान की मुख्य शाखा के आगे शुक्रवार को बैंक कर्मचारियों ने प्रदर्शन करते हुए प्रबंधन की नीतियों की जबरदस्त भत्र्सना की। बैंक कर्मचारी नेताओं ने कहा कि विलयीकरण को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यदि प्रबंधन ने अपने फैसले पर हठधर्मिता कायम रखी, तो बैंक कर्मचारी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर मजबूर होंगे। संयोजक नरेन्द्र भाटिया ने बताया कि हड़ताल शनिवार को भी जारी रहेगी।
पहले मोटरमैन और फिर एयर इंडिया कर्मी हड़तालों की अकाल मौत से उपजते सवाल
प्रणव एन.
हमारे चारों तरफ का माहौल कैसे मजदूर विरोधी, कर्मचारी विरोधी होता जा रहा है, इसके उदाहरण हमें लगातार मिल रहे हैं, घटनाओं के जरिए भी और घटनाओं के अभाव के जरिए भी। आखिर सदियों के संघर्ष से हासिल अधिकार और रियायतें मजदूर तबकों से अलग-अलग बहानों से छीने जा रहे हैं लगातार.. और व्यापक स्तर पर मजदूर वर्ग खामोश है, यह भी अपने आप में बहुत कुछ बताता है। चाहे आठ घंटे काम का सवाल हो या नियमित छुट्टियों का या फिर ओवरटाइम आदि का - मजदूर वर्ग इन सब पर लगातार हमला चुपचाप झेलता रहा है तो यह इस बात का भी सबूत है कि चारों ओर मजदूर विरोधी ताकतें इस तरह काबिज हैं कि मजदूर अपने हक का सवाल उठाने की स्थिति में भी नहीं रह गया है। यह तो हुआ घटनाओं का अभाव। मगर जो इक्का-दुक्का घटनाएं हो रही हैं, वे भी मजदूरों के लिए कम बड़ा सबक नहीं है। उन घटनाओं को जिस तरह दबाया जा रहा है वह भी मजदूर तबकों को संदेश देने का एक जरिया है कि अगर तुमने अपनी बात रखने की हिम्मत की तो इसी तरह कुचल दिए जाओगे। ताजा उदाहरण तो एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल का है, लेकिन इससे पहले मुंबई में हुई मोटरमैनों की हड़ताल का वाकया याद कर लेना बेहतर होगा।मुंबई लोकल ट्रेन चलाने वाले मोटर मैनों की 3-4 मई को हुई हड़ताल ने पूरी मुंबई को अस्तव्यस्त कर दिया था। मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल सेवा ठप हो गई थी। निश्चित रूप से यह उस हड़ताल की सफलता थी जिसके लिए मोटरमैनों और उनके संगठन को बधाई दी जानी चाहिए थी, मगर, पूरी मुंबई जैसे उन पर बौखलाई हुई थी। अलग-अलग स्टेशनों पर घंटों से अटके यात्री अपनी परेशानियों के लिए उन्हें कोस रहे थे। कई स्टेशनों पर यात्रियों का गुस्सा तोडफ़ोड़ के रूप में प्रकट हुआ।देखा जाए, तो मोटरमैनों ने अपने हक (वे छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग कर रहे थे) के लिए संघर्ष का रास्ता चुना था। और वे किसी असंवैधानिक, गैरकानूनी या समाजविरोधी रास्ते पर नहीं बढ़े थे। संगठित रूप में सरकार के सामने अपनी मांगें रखना और उन मांगों पर जोर देने के लिए हड़ताल करना कर्मचारियों के मान्य अधिकारों में शामिल हैं। इसके बावजूद मुंबई में इन्हीं मोटरमैनों की बदौलत रोज लोकल सेवा का लाभ उठाने वाले यात्री इन पर बिफरे पड़े थे। मीडिया इन्हें इस रूप में चित्रित कर रहा था जैसे ये देश विरोधी तत्व हों। संसद में सारे दलों का जोर इस बात पर था कि जैसे भी हो तुरंत हड़ताल तुड़वाई जानी चाहिए। सीपीएम और सीपीआई के कुछ सांसदनों ने नाम के लिए ही सही, पर हड़ताली मोटरमैनों के साथ दिखने की कोशिश जरूर की, पर आम तौर पर सभी दलों के सांसद हड़ताल को कुचल दिए जाने के पक्ष में दिख रहे थे। कहा जा रहा था कि कुछ लोगों के गिरोह को इस बात की छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वे हमारी वित्तीय राजधानी को जब चाहें बंधक बना लें। शिवसेना ने इस हड़ताल का समर्थन किया था। मगर, संसद में अन्य दलों की तरफ से हो रही लानत मलामत और मुंबई में लोकल यात्रियों के गुस्से को देखते हुए वह भी अपने रुख पर कायम नहीं रह सकी। इस पूरे विवाद के बीच में शिवसेना प्रमुख के आदेश का हवाला देते हुए शिवसेना ने खुद को इस हड़ताल से अलग कर लिया। राज ठाकरे की एमएनएस ने तो खुली गुंडागर्दी दिखाते हुए धमकी दी कि मोटरमैन अपने आप हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट आएं वरना एमएनएस अपनी ही स्टाइल में हड़ताल तुड़वाएगी।चारों तरफ से बल पाकर सरकार ने भी एस्मा लगा कर हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। मोटरमैनों पर गिरतारी की तलवार लटकने लगी। आखिर इस चौतरफा दबाव में मोटरमैनों को बिना शर्त हड़ताल वापस लेनी पड़ी।कुछ ऐसी ही गति एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल की भी हुई। एयर कॉरपोरेशन एप्लॉयीज यूनियन (एसीईयू) और ऑल इंडिया एयरक्राट इंजीनियर्स एसोसिएशन (एआईएईए) द्वारा आहूत हड़ताल पूरी तरह सफल रही। दो दिनों तक एयर इडिया की उड़ानें अस्त व्यस्त रहीं। इस बार भी दृश्य करीब-करीब वैसा ही थी जैसा मोटरमैनों की हड़ताल के वक्त था। यानी हड़ताल सफल लेकिन नतीजा ठन-ठन गोपाल। चारों तरफ से शोर मच रहा था, हड़ताल के कारणों को समझना तो दूर की बात, कोई उस बारे में कुछ सुनने को भी तैयार नहीं था। इस बार तो हड़ताल की भत्र्सना करने के लिए मेंगलूर हादसे का बहाना भी था। कहा जा रहा था कि हड़ताली कर्मचारी कितने संवेदनहीन हैं कि मेंगलूर हादसा के दो दिनों बाद ही हड़ताल पर चले गए। यह पूछने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही थी आखिर कर्मचारियों का मुंह बंद करने वाला आदेश यानी उनके मीडिया से बात करने पर रोक लगाने वाला आदेश जारी करने की जरूरत एयर इडिया प्रबंधन को क्यों पड़ी। वहां ऐसी क्या खिचड़ी पकाई जा रही है जिसे पूरी दुनिया से गुप्त रखना उन्हें बहुत जरूरी लग रहा है। हद तो यह कि एयर इंडिया के अरबों रुपए घाटे का ठीकरा भी इन्हीं कर्मचारियों के सर फोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि एयर इंडिया को घाटे से उबारने के नाम पर जिन फॉर्युलों पर काम चल रहा है उसका खामियाजा भी एयर इंडिया कर्मचारियों को ही भुगतना होगा। इसीलिए कर्मचारी संगठनों की तरफ से मीडिया में बयानबाजी का सिलसिला शुरू हो जाने से पहले ही उनकी आवाज दबा देने के लिए यह आदेश निकाला गया जिसे हाई कोर्ट के फैसले पर आधारित बताया जा रहा है।बहरहाल, कर्मचारियों के मीडिया से बात करने पर रोक के इस आदेश के खिलाफ दो यूनियनों - एसीईयू और एआईएईए - ने हड़ताल की घोषणा कर दी। हड़ताल प्रभावी रही और एयर इंडिया को 100 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। लेकिन, हड़ताल होते ही इस बार भी हड़ताल के खिलाफ अभियान शुरू हो गया। मीडिया बढ़-चढ़ कर हड़ताली कर्मचारियों को संवेदनहीन, गैर जिमेदार, स्वार्थी वगैरह बता रहा था। उनकी मांगों पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी। मगर, इस बार बात सरकार और मीडिया तक सीमित नहीं रही। अदालत ने भी हड़ताल को कुचलने में सक्रिय भूमिका निभाई। दिल्ली हाई कोर्ट ने आनन फानन हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। केंद्रीय कैबिनेट ने नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को पूरी छूट दे दी कि जैसे चाहें इस हड़ताल से निपटें। नतीजा यह हुआ कि कोर्ट के आदेश के बाद हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट जाने के बावजूद एयर इंडिया के कर्मचारियों को उनकी गुस्ताखी की पूरी सजा मिली। हड़ताली कर्मचारियों में से 58 को बर्खास्त कर दिया गया। 24 कर्मचारी निलंबित किए गए। बहुतों को नोटिस दिया गया। दोनों यूनियनों की मान्यता समाप्त कर दी गई। ऐसे कड़े कदम एयर इंडिया के इतिहास में कभी नहीं उठाए गए थे। इन कठोर कदमों के विरोध में एसीईयू ने 12 जून से फिर हड़ताल पर जाने की धमकी दी है।सवाल यह है कि क्या इन घटनाओं में हमारे लिए कोई सबक है? आखिर हड़ताल कोई अजूबी चीज तो नहीं हैं। स्वतंत्र भारत में हड़तालें होती ही रही हैं। अपने हकों की मांग करते, सरकार या प्रबंधन से लड़कर उन्हें हासिल करते मजदूर न तो विकास विरोधी साबित हुए और न ही उससे देश का कोई नुकसान हुआ। उल्टे, बड़ी संया में लोगों की परचेजिंग पावर बढऩे से अर्थव्यवस्था में गति ही पैदा हुई। मगर, यह दो दशक पहले तक की सचाई है। 1990 के बाद से धीरे-धीरे यूनियनें अप्रासंगिक सी होती चली गई हैं। अब अपवादों को छोड़ दें तो न तो कहीं सक्रिय यूनियनें दिखती हैं, न ही उनके तौर-तरीके। प्रबंधन मजदूरों की तरफ से चूं तक सुनने के मूड में नहीं होता। मीडिया का रुख तो हमें हर हड़ताल में दिखता है। सरकार भी हमेशा हड़ताल के खिलाफ और प्रबंधन के पक्ष में ही मोर्चा बांधे रहती है। अदालतें भी मजदूरों के हितों या हकों की आवाज सुनने को तैयार नहीं रहती। अपने हकों के लिए जूझते हुए मजदूर उसे भी अच्छे नहीं लगते।एक वाक्य में कहा जाए तो आज सिर्फ मजदूर ही मजदूर के साथ बचा है। उसके अलावा कोई भी तबका उसके साथ खड़ा होने वाला नहीं रह गया है। या तो अपने हितों को देखते हुए या फिर मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार होकर नासमझी में, पर सभी तबके मजदूर विरोधी खेमे में खड़े नजर आ रहे हैं।ऐसे में, सवाल है कि मजदूरों को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए? क्या विरोधी वर्गों की साजिशों को सफल हो जाने देना चाहिए?कोई भी इसंाफ पसंद व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि मजदूरों को अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए। लेकिन लडऩे का ढंग जरूर बदलना चाहिए। अगर एक तरह की शैली पिट रही हो, तो शैली बदलना तो युद्ध कला का एक अहम हिस्सा है। मजदूर तबकों को या इनके सचेतन हिस्सों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि मोटर मैनों की हड़ताल के दौरान राज ठाकरे ने खुली धमकी देने की जुर्रत की। वे कौन से दबाव रहे जिनकी वजह से शिवसेना को समर्थन वापस लेना पड़ गया?बेशक इन दोनों के पीछे मुंबई के वे आम लोग थे जो रोज लोकल से यात्रा करते हैं और जिन्हें मोटरमैनों की इस हड़ताल की वजह से परेशानियां झेलनी पड़ रही थीं। इन यात्रियों का बड़ा हिस्सा खुद कामगार है जो अपने कार्यस्थल पहुंचने की जद्दोजहद में था। मोटरमैनों की हड़ताल छठे वेतन आयोग के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हुई थी जिससे इन यात्रियों के हितों का कोई लेना-देना नहीं था, हां हड़ताल का खामियाजा जरूर इन्हें भुगतना पड़ रहा था, दतर न पहुंच पाने की वजह से एक दिन का वेतन कटवा कर या एक सीएल कटवा कर। ऐसे में इनका गुस्सा स्वाभाविक था। इसी गुस्से का फायदा तममा मजदूर विरोधी तबकों ने उठाया और हड़ताल के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया कि एसमा लगाने की घोषणा करने में सरकार को कोई हिचक नहीं हुई।यहीं मजदूर तबकों को अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है। उन्हें यह समझना होगा कि सरकार, पुलिस, अदालतें, मीडिया सब भले प्रबंधन की तरफ खड़ी हो जाएं देश की मेहनतकश आबादी कभी उनके खिलाफ नहीं हो सकती। वह गुमराह तो हो सकती है मगर स्थायी तौर पर उनके खिलाफ नहीं हो सकती क्योंकि उसके हित मजदूर वर्ग से जुड़े हुए हैं। इसलिए आज की जरूरत यह है कि मजदूर प्रबंधन, सरकार और पूरे सरकारी तंत्र के खिलाफ संगठित हो और साथ ही समाज के अन्य मेहनतकश तबकों को अपने साथ ले। ये दोनों काम एक साथ हो सकते हैं। शर्त सिर्फ यह है कि मजदूरों को अपनी दृष्टि का थोड़ा विस्तार करना होगा। वेतन-भत्ता बढ़ाने वाली अर्थवादी मांगों से ऊपर उठते हुए राजनीतिक लड़ाई को ओर बढऩा होगा। दूसरे शब्दों में उन्हें सिर्फ एयर इंडियाकर्मी या रेलवे मोटरमैन की तरह नहीं बल्कि एक मजदूर के रूप में सोचना होगा और ऐसे बड़े मुद्दे तलाशने होंगे जिनसे सभी मजदूरों के हित जुड़ते हों चाहे वह रेलकर्मी हो या विद्युतकर्मी या गांव का खेतहीन मजदूर हो या फिर शहर का दिहाड़ी मजदूर।सोचिए अगर मुंबई में मोटरमैनों ने कोई ऐसा मुद्दा चुना होता जिससे लोकल में यात्रा करते लोगों के हित भी जुड़े होते तो क्या वे इस हड़ताल से इतने बौखलाए हुए होते? अगर उनका समर्थन इस हड़ताल को होता क्या शिवसेना इस हड़ताल को समर्थन देकर भी इस तरह से मुकरती या राज ठाकरे कर्मचारियों को इस तरह धमकाने की हिम्मत करते? और क्या ऐसा होता कि एयर इंडिया के कर्मचारियों पर गाज गिर रही है तो देश भर की अन्य सारी यूनियनें उदासीन बैठी हुई हों। एक वाक्य में कहा जाए तो अब एक खास ट्रेड तक सीमित लड़ाई का दौर नहीं रहा। अब वक्त आ गया है इस लड़ाई को व्यापक रूप देने का। ऐसे संगठन भी अस्तित्व में आ रहे हैं, वे मंच भी उपलब्ध हो रहे हैं जो ऐसी व्यापक लड़ाई को संभव बना सकते हैं। उदाहरण के लिए ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल बन चुकी है जो पूरे देश के सर्वहारा वर्ग का जनराजनीतिक संगठन है। इससे जुड़कर अलग-अलग फील्ड के मजदूर भी साझा लड़ाई को अंजाम दे सकते हैं। इसी प्रकार मजदूरनामा नाम का एक ब्लॉग (ma) भी इस साल मई दिवस पर अस्तित्व में आ चुका है जो पूरे देश के मजदूर वर्ग से जुड़ी खबरों को मजदूर वर्ग के ऐंगल से प्रस्तुत करता है। अंत में बात वहीं आकर रुकती है कि इन औजारों का इस्तेमाल तो देश के मजदूरों को ही करना है। अगर मजदूर वर्ग और खासकर उसका सचेतन हिस्सा इन औजारों के महत्व को पूरी तरह नहीं समझता या इनका अधिकाधिक इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय नहीं होता तो ये औजार भी जंग खाकर बेकार हो जाएंगे।

Thursday, June 3, 2010

कर्मचारियों के खिलाफ दनादन याचिकाएं दायर करने वाली केंद्र सरकार से सुप्रीम कोर्ट ने कहा हिम्मत है तो आईएएस बाबुओं पर ऐसा ही करके दिखाओ

-सुप्रीम कोर्ट ने दिखाया सरकार को आइना

-चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के खिलाफ लगातार याचिकाएं दाखिल पर अदालत खफा
नई दिल्ली, एजेंसी : यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे शक्तिशाली संघीय सरकार का चरित्र है। वह सिर्फ कर्मचारियों को परेशान करने के लिए निरर्थक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर करती रहती है। इससे जितना संसाधन खर्च होता है उससे ज्यादा अदालत का समय जाया होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के कर्मचारी विरोधी चरित्र को उजागर करते हुए कहा कि हिम्मत है तो आईएएस-पीसीएस बाबुओं के खिलाफ याचिकाएं देकर दिखाओ।

चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों को लगातार चुनौती देने वाली अपीलें दाखिल करने वाले केंद्र को आड़े हाथ लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या उसमें इस तरह के मुद्दों पर आईएएस-आईपीएस अधिकारियों से निपटने की हिम्मत है? इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने अर्थहीन याचिकाएं दायर करने के लिए केंद्र की खिंचाई कर चुका है। नवनियुक्त प्रधान न्यायाधीश एचएस कपाडिय़ा ने तो कार्यालय संभालते ही मामूली याचिकाओं से कड़ाई से निपटने की बात कही थी।

बृहस्पतिवार को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के वकील से कहा, 'आप अक्सर श्रमिकों, खलासियों और चपरासियों के खिलाफ हमारे पास क्यों आते हैं? क्या आपमें आईएएस-आईपीएस अधिकारियों से निपटने की हिम्मत है। आप चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के खिलाफ याचिकाएं दाखिल करते रहते हैं, लेकिन आईएएस-आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ ऐसा नहीं करते। ऐसा इसलिए है कि आपमें हिम्मत नहीं है।Ó

शीर्ष अदालत ने रक्षा मंत्रालय में जरनैल सिंह को एक श्रमिक के तौर पर नियुक्त करने के पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के निर्देश को चुनौती देने वाली केंद्र की अपील खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।केंद्र के वकील वसीम अहमद कादरी के मुताबिक, हालांकि सिंह का चयन साक्षात्कार के बाद हुआ था, फिर भी उसे उस पद के लिए नियुक्ति नहीं किया जा सका क्योंकि वह पद एक नियत समय के लिए निर्धारित था। कादरी ने कहा कि मंत्रालय द्वारा सिंह को 10 मार्च 1990 को नियुक्ति देने पर विचार किया गया था जबकि नियमों के मुताबिक इस पद पर नियुक्ति के लिए अंतिम तिथि 25 मई 1989 है। सिंह ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के केंद्र के पक्ष में दिए गए फैसले को चुनौती दी थी। इसके बाद पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने केंद्र को सिंह को नियुक्त करने के निर्देश दिए। इसके खिलाफ केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।हाईकोर्ट ने कहा था कि चयन प्रक्रिया रोजगार कार्यालय के मार्फत पूरी की गई थी इसलिए सिंह संबंधित पद पर नियुक्ति पाने के हकदार हैैं। हालांकि इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश दे दिया था लेकिन इस मामले को सुनवाई के लिए खुला रखा।

यह चरित्र केंद्र सरकार का देश की सबसे बड़ी श्रमिक आबादी के खिलाफ आज से नहीं है। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट को अब इसकी सुध आई है। शायद इसीलिए श्रमिक वर्ग अदालतों से न्याय की उम्मीद छोड़ चुका है। पिछले दो दशक से अदालतों द्वारा श्रमिकों के खिलाफ लिए गए निर्णयों ने भी अब न्याय पाने से नाउम्मीद हो चुका है।

Wednesday, June 2, 2010

Apple boss Steve Jobs defends conditions at Chinese factory where 10 workers have jumped to their deaths

12:00 PM on 2nd June 2010
Newly installed nets to prevent workers from jumping to their deaths are pictured outside one of the Foxconn's factory buildings in the township of Longhua, in southern Guangdong province, China
Apple is widely expected to unveil its newest iPhone next Monday, when Jobs delivers his keynote address at its developers conference in San Francisco.
Consumers have already been given a sneak look at the new iPhone which was famously lost by an Apple employee at a bar earlier this year and then purchased and displayed online by a technology blog.

Dhaka building collapse kills 14











5:17 GMT, Wednesday, 2 June 2010 6:17 A four-storey building has collapsed in the Bangladeshi capital, Dhaka, killing at least 14 people and injuring others.
The apartment building in Tejgaon fell on some neighbouring tin-roof shanties late on Tuesday, killing several people living in them.
Rescue operations are in progress and at least six people have been taken out of the debris by army and fire workers.
Officials say the death toll is likely to rise as an unknown number of people are still buried in the debris.
Canal construction
Fire official Abdus Salam said the building had been constructed on land which was once a canal and the owner had been adding another floor to it when the collapse occurred.
Officials said it was unclear how many people were inside the building when it collapsed.
It toppled on a row of shanties in which garments and daily wage workers were sleeping, reports said.
"We see more bodies in the collapsed shanties. So the death toll is likely to go up," Mr Salam said.
In 2006, at least 15 people dead and 50 injured when a five-storey building collapsed in Dhaka.
And in 2005, more than 60 people died when an illegally-constructed garment factory collapsed near Dhaka.

'For a factory, it's pretty nice': Apple boss Steve Jobs defends conditions at Chinese factory where 10 workers have jumped to their deaths
Newly installed nets to prevent workers from jumping to their deaths are pictured outside one of the Foxconn's factory buildings in the township of Longhua, in southern Guangdong province, China
Apple is widely expected to unveil its newest iPhone next Monday, when Jobs delivers his keynote address at its developers conference in San Francisco.
Consumers have already been given a sneak look at the new iPhone which was famously lost by an Apple employee at a bar earlier this year and then purchased and displayed online by a technology blog.
Jobs said there was debate about whether the phone was simply picked up after being left at the bar, or actually stolen out of the employee's bag.
'This is a story that's amazing,' Jobs said. 'It's got theft. It's got buying stolen property.
'It's got extortion. I'm sure there's sex in there somewhere. Somebody should make a movie out of this.'

होंडा कार ने मजदूर को रौंदा

बाहरी दिल्ली, 2 जून -मॉडल टाउन में बुधवार की शाम एक तेज रफ्तार होंडा सीटी कार ने एक मजदूर को टक्कर मार दी जिससे वह गंभीर रूप से जख्मी हो गया। उसकी शिनाख्त उपेंद्र (25) के रूप में हुई है। पुलिस ने उसे ट्रामा सेंटर में भर्ती कराया। पुलिस मामले की जांच कर रही है।जानकारी के अनुसार प्रवीन (22) होंडा सीटी कार से आजादपुर से मॉडल टाउन की तरफ जा रहा था। छत्रसाल स्टेडियम के निकट फुटपाथ के सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था। इसी दौरान अनियंत्रित होंडा कार ने उसे टक्कर मार दिया। अस्पताल में उसे भर्ती करा दिया गया, जहां उसकी हालत स्थिर बनी हुई है। इस मामले में किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई

Tuesday, June 1, 2010

फैक्ट्री की छत ढही, एक मजदूर की मौत




अमृतसर, ३१ मई -मुनाफे की हवश ने मजदूरों पर सोमवार को अमृतसर में एक बार फिर कहर ढाहा है। एक फैक्ट्री की छत भरभराकर गिर गई और उसमें कई मजदूर दब गए। एक मजदूर का शव निकाल लिया गया है जबकि कई उसी में घंटों दबे रहे। छत ढहते ही मौके से फैक्ट्री मालिक फरार हो गया। घंटों बाद पुलिस ने राहत व बचाव शुरू किया लेकिन तबतक एक मजदूर की जान जा चुकी थी। घटिया सामग्री और सुरक्षा के मानकों का घोर उल्लंघन आए दिन मजदूरों की जान लील रहे हैं लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।
सुरक्षा मानकों की अनदेखी मुनाफे की हवश से उपजा हुआ जानबूझकर किया गया अपराध है। मालिकान अपने मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए मजदूरी में कटौती करके भी नहीं मानने वाले इसीलिए आए दिन देश भर में निर्माण कार्यों में लगे मजदूर अपनी जान गंवा रहे हैं।

गुजरात पुलिस मजदूरों को नक्सली बताकर कर रही है गिरफ्तार

सामाजिक संगठनों ने लगाया आरोप, चुप रहने पर गांधीवादियों को लताड़ा
सोमवार को पकड़े गया युवक सामाजिक कार्यकर्ता
नक्सली बताकर गिरफ्तार किया गया युवक मानवाधिकार कार्यकर्ता श्रीनिवास कुरापाटी, पत्नी हंसा तथा वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अमृत भाई वाघेला के समर्थकों ने कहा हमें भी गिरफ्तार करो
अहमदाबाद एजेंसी आखिर गुजरात सरकार ने केंद्र के मंसूबो को बढ़ चढ़ कर पूरा करने में वह करना शुरू कर दिया है जो केंद्र मजबूरी में नहीं कर पा रही है। अब देश भर के मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए नक्सल विरोधी मुहिम को ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका खुलासा तब हुआ जब अहमदाबाद के समाजिक कार्यकर्ताओं ने मंगलवार को प्रेस कांफ्रेंस कर इस बात का खुलासा किया कि सोमवार को नक्सली बताकर जिस युवक को गुजरात पुलिस ने पकड़ा है वह सामाजिक कार्यकर्ता है और कई सालों से मजदूरों के बीच काम कर रहा है। गुजरात पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ की तोहमत तो लगी हुई है ही अब उसका नक्सल विरोधी अभियान भी शंका के घेरे में है। सामाजिक संगठनों ने पुलिस की इस मुहिम को गुजरात सरकार की जनता को गुमराह करने की एक साजिश बताया है। आरोप है कि राज्य में नक्सलवाद का हौव्वा खड़ा कर सरकार दलितों व श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को बंदी बना रही है।सामाजिक संस्था पीयूसीएल, दर्शन, अमन समुदाय की अगुवाई में गुजरात के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने एकजुट होकर गुजरात सरकार की नक्सलवाद विरोधी मुहिम के स्याह पहलुओं को सामने ला दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता गिरीश पटेल का कहना है कि पिछले पांच दशक से गुजरात की राजनीति में कोई ना कोई हौव्वा खड़ा कर राजनेता फायदा उठाते रहे हैं। उनका मानना है कि आजादी के बाद नागरिकों को मूलभूत सुविधा तक नहीं देने वाली केन्द्र व राज्य सरकारें सबसे बड़ी आतंकवादी हैं। समाज में अब एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जो सरकार से कोई सुविधा नहीं चाहता, यह तबका बस अपने संसाधनों पर खुद का अधिकार चाहता है। उन्होंने गुजरात में मानवाधिकार विरोधी गतिविधियों पर चुप्पी लगाए गांधीवादियों को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि ऐसे गांधीवादियों की क्या जरूरत है जो अधिकारों के लिए बोल ना सकें। सामाजिक कार्यकर्ता हिरेन गांधी तथा वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश शाह का कहना था कि सरकार का विरोध करने वालों पर नक्सली होने का ठप्पा लगाकर सत्ताधीश गरीब और दलितों की आवाज को कुचलना चाहते हैं। उन्होंने सोमवार को गिरफ्तार श्रीनिवास कुरापाटी के साथ उसकी पत्नी हंसा तथा वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अमृत भाई वाघेला की गिरफ्तारी को अवैध बताया है। इनका कहना है कि वाघेला कई वर्षों से गुजरात में सांप्रदायिक सौहार्द के लिए काम कर रहे हैं। दलित कार्यकर्ता राजूभाई सोलंकी आदि ने कहा कि यदि गिरफ्तार किए गए युवक नक्सली हैं तो उनके साथ काम करने वाले हम सब भी नक्सली हैं। उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस दोनों कभी राम तो कभी रावण हो जाती है, देश में तीसरी शक्ति का उदय उन्हें जरा भी पसंद नहीं है इसलिए कभी नक्सलवाद, कभी माओवाद का हौव्वा खड़ा कर ऐसे आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया जाता है।

80 वर्षीय रिटायर्डआर्मीआफीसर पर दुष्कर्म का आरोप

(गुडग़ांव), १ जून :पॉश कालोनी डीएलएफ फेज थ्री के बिलवे्रड पार्क निवासी एक अस्सी साल के रिटायर्ड सेना अधिकारी के ऊपर उसकी 19 वर्षीय नौकरानी ने दुष्कर्म करने का आरोप लगाया है। पुलिस ने कई दिनों तक मामले को सुलटाने का प्रयास किया पर पश्चिम बंगाल निवासी पीडि़ता की ओर से एक एनजीओ ने दबाव बनाया तो थाना डीएलएफ फेज टू पुलिस ने मामला दर्ज कर नौकरानी की मेडिकल जांच कराई। जिसमें दुष्कर्म की पुष्टि नहीं हुई तो पुलिस ने लड़की के कपड़े फारेसिंक जांच के लिए मधुबन लैब भेजे है। जिसके जांच रिर्पोट आने के बाद ही पुलिस आगे की कार्यवाई करेगी। शिकायत कर्ता लड़की 15 मई से ही नौकरी पर आई थी। मामला गंभीर देख कोई भी पुलिस अधिकारी मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं। और मामले को दबाने की कोशिश में जुट गए हैं।

श्रमिकों के बकाया वसूलने के लिए टीम गठित

मोदीनगर, १ जून - मोदी स्टील पर श्रमिक देय का सात करोड़ रुपया वसूलने के लिए उपजिलाधिकारी के नेतृत्व में टीम गठित की है। साथ ही श्रमिक प्रबंधन के लंबित विवाद की जिला प्रशासन ने रिपोर्ट तलब की है।अपर जिलाधिकारी प्रशासन सतीश कुमार ने बताया कि बंद मोदी स्टील के श्रमिकों के श्रम देय का सात करोड़ रुपया बकाया चला आ रहा है। जिसे लेकर उपजिलाधिकारी पुष्पा देवरार, तहसीलदार पारस नाथ मौर्य के नेतृत्व में टीम गठित कर वसूलने के निर्देश दिए है। वसूली न होने से क्षुब्ध श्रमिक नेता जयभगवान ब्रहमचारी, इस्लाम आदि ने इस बाबत मंडलायुक्त से गुहार लगाई थी।

फैक्ट्री में बायलर फटा, सात मजदूर झुलसे

-घायल मजदूरों को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दाखिल कराया गया
राई, 1 जून : नाथूपुर रोड स्थित एक फैक्टरी में सोमवार की रात को एक बायलर फट गया। इस हादसे में फैक्टरी में काम कर रहे सात मजदूर बुरी तरह से झुलस गए। फैक्टरी कर्मचारियों ने सभी मजदूरों को दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल में दाखिल कराया है। पुलिस मामले की छानबीन कर रही है। नाथूपुर रोड स्थित एक केमिकल की फैक्टरी में सोमवार देर रात बायलर फट गया। बताया जाता है कि किसी केमिकल के जाम होने के कारण एक धमाके के साथ बायलर फटा। हादसे में वहां काम कर रहे उत्तरांचल निवासी पवन, उत्तर प्रदेश के बाराबांकी निवासी गुड्डू, कर्ण वर्मा, फैजाबाद निवासी प्रेमलाल, बिहार के वैशाली निवासी राजू, उत्तराखंड के गढ़ निवासी कमल किशोर तथा बुराड़ी दिल्ली निवासी समर बुरी तरह से झुलस गए। फैक्टरी के अन्य मजदूरों ने इसकी सूचना तत्काल अधिकारियों को दी तथा घायल मजदूरों को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दाखिल कराया गया। मामले की सूचना मिलने के बाद थाना कुंडली पुलिस ने फैक्टरी पहुंचकर घटनास्थल का जायजा लिया। थाना प्रभारी रतन सिंह ने बताया कि फिलहाल इस संबंध में कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है।

न्यूनतम वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर मजदूर नेता मिले राजस्थान के मुख्यमंत्री से

जयपुर, १ जून -केंद्रीय श्रम संगठनों इंटक, एटक, भामस, सीटू एचएमएस, एक्ट एवं सीटू के प्रांतीय पदाधिकारियों ने मंगलवार को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भेंट कर श्रमिकों के न्यूनतम वेतन में तत्काल बढ़ोतरी कर 200 रुपए निर्धारित करने की मांग की साथ ही वेतन को महंगाई सूचकांक से जोड़कर समय-समय पर स्वत: वृद्धि की मांग की।

एकजुटता में ही समस्याओं का समाधान संभव : चौधरी

बीकानेर, 31 मई एजेंसी - अखिल राजस्थान राज्य कर्मचारी महासंघ एकीकृत के प्रदेशाध्यक्ष महेन्द्रसिंह चौधरी ने कहा है कि कर्मचारियों के संगठित होने पर ही उनकी समस्याओं का निराकरण होगा। चौधरी आज यहां संयुक्त कर्मचारी संघ द्वारा आयोजित समारोह को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों की एकजुटता से उनकी समस्याओं के निराकरण को बल मिलेगा।