बात शुरू हुई थी प्रणव एन की पोस्ट मुद्दा गरीबी नहीं बराबरी है मेरे दोस्त से। पुनीत ने इस पर विचारोत्तेजक कमेंट लिखा जिसे हमने पोस्ट के रूप में यहां पेश किया पूंजीवाद सड़ती हुई लाश है? भला कैसे, यह तो बताएं अब पुनीत के सवालों को संबोधित कर रहे हैं खुद प्रणव एन। पाठक स्वतंत्र हैं इस पूरी बहस में अपनी राय बनाने और व्यक्त करने के लिए - मालंच)
प्रणव एन.
‘मेरी आवाज ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं हूं खामोश जहां, मुझको वहां से सुनिए'
पुनीत ने जो कहा है, वहां मैं बाद में आऊंगा। शुरू मैं वहां से करता हूं जहां पुनीत चुप हैं। उन्होंने शुरू ही इस वाक्य से किया है, ‘बाकी सब तो ठीक है...’मैं पूछना चाहता हूं पुनीत, क्या ठीक है? चूंकि आपने मेरी पोस्ट पर कमेंट किया है तो यही मानना पड़ेगा कि आपको मेरी पोस्ट की बाकी बातें ठीक लगीं, बस पूंजीवाद को सड़ती हुई लाश बताकर मैंने गलती की .. सॉरी तथ्यों की बेइज्जती कर दी आपके शब्दों में।
इसका मतलब, आप मानते हैं कि पूंजीवाद मूलतः विषमता बढाने वाली व्यवस्था है? आप जानते हैं कि ट्रासंपैरेंसी इंटरनैशनल की रिपोर्ट के मुताबिक इस देश के मात्र 23 परिवारों के पास 215 अरब डॉलर की घोषित संपत्ति है (यह तो तथ्य है ना आपके हिसाब से भी? ) । इसके बरक्स दूसरा तथ्य भी आप जानते होंगे कि सरकारी आंकड़ो के ही मुताबिक इस देश के 77 फीसदी लोग 20 रुपए रोज पर गुजारा कर रहे हैं?
आप कहेंगे जिसमें जितनी कूवत है उसने उतना कमाया। यानी जिसकी जितनी क्षमता है उसे उतना कुछ हासिल करने की आजादी होनी ही चाहिए? जिसमें कूवत ही नहीं, वह मर जाए तो मर जाए? है ना? नीति वाक्य भी आपके पास तैयार है शुद्ध संस्कृत में, ‘वीरभोग्या वसुंधरा’? आधुनिक युग की बात करें तो ‘ सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की थ्योरी आपकी मदद के लिए है ही। क्यों? गलत तो नहीं कह रहा मैं?
पर मेरा सवाल बस इतना सा है कि अगर यह सब बातें सही है तो आप या आपकी यह पूंजीवादी व्यवस्था डंके की चोट पर इसे स्वीकार क्यों नहीं कर लेती ? क्यों उसे समानता का ढोंग करना पड़ता है? क्यों फ्रांसीसी क्रांति में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे को स्वीकार किया गया? क्यों उसे बार-बार दोहराना पड़ता है कि जन्म से सब समान हैं? अगर शारीरिक और मानसिक क्षमता के आधार पर इंसान और इंसान में भेदभाव लाजिमी है तो क्यों देश का संविधान हर व्यक्ति को समान दर्जा देने का दावा करता है? क्यों यह कहा है कि कानून के सामने हर व्यक्ति बराबर है? अगर हर व्यक्ति को - चाहे उसके पास दौलत हो या न हो - न्याय लेने के लिए बड़े से बड़ा वकील पाने की स्वतंत्रता नहीं है, उसे अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा सुनिश्चत करने का अधिकार नहीं है, उसे अपनी बूढी मां का पूरा-पूरा इलाज करवाने का हक नहीं है तो कैसे हुए सब समान? और अगर सब समान नहीं है तो यह बात खुलकर मान क्यों नहीं लेती आपकी यह पूंजीवादी व्यवस्था?
नहीं मान सकती। इसलिए कि जिन लोगों की कूवत की बात आप करते हैं और जिन्हें इस दुनिया की हर चीज का उपभोग करने की खुली छूट सिर्फ उनकी क्रय शक्ति के आधार पर दे देते हैं, उनकी शक्ति और कूवत का राज इन्ही नौटंकियों में छुपा है। वे यह बात जानते हैं कि उनकी सारी अय्याशी मेहनतकश तबकों की दिन- रात की मेहनत पर टिकी है। वे बस चालाकी से उसे अपने नाम कर लेते हैं। इसी चालाकी को चलाते रहने के लिए उन्हें ,लोकतंत्र मीडिया वगैरह के जरिए लगातार नौटंकी करवाते रहने की जरूरत होती है। समानता दावा भी वैसी ही एक नौटंकी है।
इन सब बातों को मैंने रेखांकित इसलिए किया, क्योंकि आपकी टिप्पणी के हिसाब से आप ये सारी बातें मानते हैं। और अगर मानते हैं तो पूंजीवादी व्यवस्था की सड़न से इनकार कैसे कर सकते हैं? पर यह तो हुई आपकी बात। आप चाहो तो अपने आप से पूछना कि सारी बातों को ठीक मान कर भी आप पूंजीवाद की सड़न से इनकार कर रहे हैं तो वह किस बिना पर.. लेकिन मैं अब अपनी बात करता हूं कि मैंने क्यों पूंजीवाद को सड़ती हुई लाश कहा?
सामंतवाद के खंडहर पर जब पूंजीवाद की इमारत बननी शुरू हुई तो संघर्ष उस समय भी कम नहीं हुआ। यथास्थितिवादी शक्तियां तब भी काफी मजबूत थीं। उन्होंने पूरी ताकत लगा दी पूंजीवादी शक्तियों को नष्ट करने मे। मगर, जनता की नई चेतना तब पूंजीवादी शक्तीयों के साथ थी। पूंजीवाद तब समाज को, मनुष्य की चेतना को आगे बढ़ा रहा था। सामंतवाद के विपरीत इसने माना कि जन्म के आधार पर इंसान और इंसान में कोई भेद नहीं होना चाहिए। इसने माना कि हर मनुष्य को अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी बिताने और पेशा चुनने का हक है।
सामंतवाद में भूदास का प्रचलन था जो जमीन के साथ बंधे होते थे। जमीन बिकती थी तो वे भी बिक जाते थे। पूंजीवाद ने ऐसे प्रचलनों को बंद करवाया। पूंजीवाद की ही वजह से बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ। उत्पादन इतना बढ़ा कि पूरी दुनिया के सभी मनुष्यों की सारी अनिवार्य जरूरतें पूरी करना संभव हो गया।
पर, धीरे-धीरे पूंजीवाद अपनी उम्र पूरी करता रहा। बाद की अवस्थाओं में, उसमें मानव समाज को आगे ले जाने की क्षमता कम होती गई। इसकी सीमाएं भी साफ होती गईं। यह स्पष्ट होता गया कि मनुष्य की संपत्ति चाहे जितनी जाए, मानव समाज की विसंगतियां इस व्यवस्था में दूर नहीं हो सकतीं।
इतना ही नहीं, एक दौर में जो बुराइयां पूंजीवाद ने दूर कीं, बाद के दौर में उन्हीं बीमारियों को इससे मजबूती मिल रही है। आप गौर कीजिए कि भारत में ही एक दौर ऐसा था जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में लोन वगैरह देकर लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाई गई। भले मकसद देश के घरेलू बाजार का विस्तार करना ही क्यों न हो, मगर इससे आबादी के बड़े हिस्से की जिंदगी बेहतर हुई।
मगर, 90 के बाद के दौर में इसी पूंजीवादी व्यवस्था ने फिर से निजीकरण पर जोर देना शुरू किया। लिहाजा, पब्लिक सेक्टर के बैंकों तथा अन्य उपक्रमों में भी मुनाफे का दबाव ऐसा बढ़ा कि अब आम लोगों की बेहतरी का सवाल पीछे छूट गया है। सरकारी विभागों में भी मुनाफे के इसी तर्क की वजह से छंटनी का दौर भी हम देख चुके हैं और देख रहे हैं।
सामाजिक क्षेत्र में भी हम जानते हैं कि एक दौर में पूंजीवाद ने जाति और दहेज प्रथा को मिटाने का काम किया था, मगर आज के दौर में आप देख सकते हैं कि पूंजीवाद बाजार की शक्तियों के हाथों मजबूर होकर इन बुराइयों को और बढ़ा रहा है। उदाहरण चाहिए तो आप वे सब विज्ञापन याद कीजिए जो कहते हैं कि ‘अपने समाज की लड़की पसंद करें हमारी मेट्रोमोनियल साइट पर’ या वह ऐड जिसमें कहा जाता है कि ‘फलां कंपनी का फ्रिज देने पर बेटी के ससुराल वाले खुश हो जाते हैं।’
आप ही बताइए पुनीत जी, क्या ये इस बात सबूत नहीं है कि पूंजीवादी व्यवस्था चेतनाहीन हो चुकी है? इसमें अच्छे - बुरे का होश नहीं रहा। अब इससे मानव समाज को कुछ मिलना नहीं है? साफ शब्दों में कहें तो जो पूंजीवाद हमें दिख रहा है वह पूंजीवाद नहीं, उसकी लाश है। उसमें जीवंतता के कोई लक्षण नहीं रहे। यह लाश अब सड़ रही है, जिसकी गंध हर तरफ फैली है और बढती जा रही है।
मगर, दुनिया की कोई लाश खुद से चल कर श्मशान घाट नहीं पहुंचती। उसे कंधों पर लाद कर वहां पहुंचाना पड़ता है। यह काम भी आसान नहीं होता। घर के वे सदस्य जिन्हें मृत व्यक्ति काफी प्यारा होता है, वे उसके मरने के बाद भी उससे मोह तुरंत छोड़ नहीं पाते। ऐसे सदस्य लाश उठाने का तगड़ा विरोध करते हैं। पर, समाज के और आस पड़ोस के समझदार लोगों की जिम्मेदारी होती है कि उस विरोध की अनदेखी करते हुए लाश की अंत्येष्टि सुनिश्चित करवाएं।
मेरा सवाल आपसे और आप जैसे तमाम समझदार लोगों से यही है कि इस लाश से मोह छोडकर इसका अंतिम संस्कार करने में आप सब और कितना वक्त लेंगे?
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23 मार्च
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Thursday, June 17, 2010
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लाश बहुत भारी है, आसानी से श्मशान नहीं जाएगी। बहुत लोग जुटाने होंगे। जिस दिन जुट जाएँगे, उस दिन देर नहीं लगेगी इस की गति करने में।
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता है कि पुनीत को यह बताने की जरूरत है कि पूंजीवाद एक सड़ी हुई लाश है जिसकी सड़ांध कभी भोपाल में रिसती है तो कभी मैक्सको खाड़ी में...। पुनीत को यह भी बताने की जरूरत नहीं है कि पूंजीवाद की सड़ी लाश कभी विएतनाम पर एजेंट आरेंज के रूप में गिरती है तो कभी इराक में स्कड मिसाइलों के रूप में और कभी अफगानिस्तान में ड्रोन बन जाती है...। भारत के जंगलों में क्यों युद्ध छिड़ा हुआ है.. यह इसलिए तो नहीं कि पूंजीवाद की लाश को संजीवनी देने की कोशिश हो रही है...। दूर जाने की जरूरत नहीं है किसी इंडस्ट्रीयल इलाके में एक बार जाएं और देखें कि पूंजीवाद की लाश मजदूरों का किस कदर खून पी रही है...।
ReplyDeleteपुनीत को इसका जवाब देना चाहिए कि आखिर जब ग्लोबलाइजेशन का इतना हो हल्ला मचा है तो ये युद्ध क्योंकर होने चाहिए, जब उत्पादन अपने चरम पर है तो क्योंकर लोग भूखे नंगे रहने चाहिए... जब अकूत मुनाफा हो रहा हो तो क्योंकर जीने लायक भी मजदूरी नहीं मिल पा रही है....
मैं सबसे पहले तो देर से आने के लिए माफी चाहता हूं। दो-चार दिनों से मैं नेट पर नहीं आ सका। फिर मजदूरनामा ब्लॉग के संचालकों ( मालंच ) का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, मेरी बात को तवज्जो देने के लिए।
ReplyDeleteअब आता हूं अपनी बात पर। मेरी टिप्पणी ध्यान से पढ़ें। मैंने कहीं नहीं कहा है कि पूंजीवाद बहुत अच्छी व्यवस्था है और इसे हमेशा चलते रहना चाहिए। मैंने कहा कि कम से कम मुझे हाल-फिलहाल इसमें बदलाव के आसार नहीं नहीं आ रहे। दूसरी बात मेरा पूरा जोर इस बात पर रहा कि आप लोग जो मौजूदा हालात से नाखुशी जताते हुए हालात बेहतर करने की कोशिश में जुटे होने का दावा करते हैं क्या हम उनसे ज्यादा सटीक, ज्यादा तार्किक और ज्यादा तथ्यपरक होने की अपेक्षा नहीं कर सकते, या हमें नहीं करनी चाहिए?
तीसरी बात प्रणव एन ने इस पोस्ट में अपना पक्ष अच्छी तरह रखा है, इसमें दो राय नहीं, पर मेरा कहना है कि इसका कुछ हिस्सा तो उन्हें पहले वाली पोस्ट में भी लिखना चाहिए था।
बहरहाल, संदीप राउजी जैसे दोस्तों के कमेंट को देखते हुए मैं अपना स्टैंड साफ कर देना चाहता हूं। मैं पूंजीवाद के पक्ष में नहीं हूं, पर बदलाव का दावा करने वाली विचारधारा में भी मुझे अभी तक खास उम्मीद नहीं दिख रही है। इसलिए फिलहाल में किसी एक पक्ष में खड़े होने की मजबूरी नहीं पालना चाहता। जिस तरफ भी जो अच्छी बात है वह मुझे स्वीकार्य है पर जो गलत है उसे गलत कहने की अपनी आजादी मैं खोना नहीं चाहता।
@ पुनीत, 'समर शेष है नही पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध'
ReplyDeleteमहोदय आप इस पूंजीवाद की गड़बड़ियाँ अगर स्वीकारते हैं तो यह आपकी भी ज़िम्मेदारी है की इसका विकल्प मानी जाने वाली व्यवस्थाओं की जाँच करें, यह देखें की आपके हिसाब से उनमे क्या कमी हैं और वे कैसे दूर होंगी. एक लाइन मे कहूँ तो सबसे अच्छा विकल्प खोजना और उसे लागू करना आपकी भी ज़िम्मेदारी है. यानियऔर यह काम शुरू करते ही आप तटस्थ नही रह जाते. लेकिन अगर पूंजीवाद के दोष समझते हुए भी आप इस बहाने की आड़ मे इस लड़ाई से अलग रहते हैं की आप विरोधी पक्ष से पूरी तरह सहमत नही हैं तो यह सिर्फ़ इसीलिए की मौजूदा व्यवस्था के पीड़ितो मे आप खुद को शामिल नही समझते हैं. आपको लगता है की हालात बदलना आपकी ज़रूरत नही है. अगर ऐसा है तो आप पीड़ितो के साथ सहानुभूति जताना बंद करें. आपकी सहानुभूति यहाँ किसी को नही चाहिए.
मेरा मतलब सॉफ है की इस लड़ाई मे आप तटस्थ नही रह सकते.. या तो आप वंचितो पीड़ितों के साथ हैं या उनके खिलाफ. पहले तय करे की किस तरफ हैं फिर उस तरफ से बात करें... खुद को दोनो तरफ होनेका दिखाने की ग़लती ना करें