Tuesday, May 24, 2011

अन्ना का आन्दोलन और भ्रष्टाचार

पिछले कुछ हफ्तों में हमने आँखें खोल देेने वाले कई ऐसे उदाहरण देखे कि पूरी तरह भ्रष्ट कोई सरकार कैसे आज्ञाकारी मीडिया को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करता है। यहाँ दिए जा रहे विश्लेषण के मार्फत हम देखेंगे कि कैसे अन्ना हजारे को मनमोहन सिंह-चिदम्बरम सरकार ने गत मार्च में और अप्रैल 2०11 की शुरुआत में 'बिजूखेÓ (डमी) की तरह इस्तेमाल किया। यह अनुमान करना, काफी जल्दबाजी होगी कि अन्ना हजारे घोटाला, सरकार में उच्च स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार के नित-नए खुलासे से पैदा हुए जनाक्रोश को मोडऩे के अपने मकसद को हसिल करने में कितने दिन तक सफल रहता है। 'अन्ना हजारे ड्रामाÓ के साथ सोचा गया था कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन, अप्रैल के दूसरे हफ्ते में ही इस 'अराजनीतिक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताÓ ने खून से सने नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर, उससे अपनी नजदीकियों की गंध दे दी। और पागलाई हुई मीडिया की गिरफ्त में आए हुए कुछ अच्छी नीयत के लोगों को इससे थोड़ी सी निराशा हुई होगी या कम से कम इस अभियान के बारे में कुछ और सोचने को मजबूर हुए होंगे।
1991 में नवउदारवादी सरकार के आगमन से पहले भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार अभियान व्यावसायिक मीडिया के लिए एक नियमित परियोजना हुआ करती थी। इस तरह की रिपोर्टिंग में एक चलताऊ फार्मूला, जिसमें व्यावसायिक संघ का एक हीरो हुआ करता था, जो राज्य आबकारी विभाग के सब इन्स्पेक्टर या रेलवे सुरक्षा बल या किसी नगर निगम के कर्मचारी की रिश्वतखोरी को रंगेहाथ पकडऩे में सफलता हासिल कर लेता था। ऐसे समाचार कथाओं के कानफाड़ू शोर और असली राजनीतिक भ्रष्टाचार के बारे में जो कुछ, हर कोई जानता था, उस सबको मिलाकर मीडिया ने नवउदारतावादी परिवर्तन के लिए एक माहौल तैयार किया। इस सब में लाइसेंस राज को ही विकास में एकमात्र अवरोध के रूप में दिखाया जाता था, जो सारे भ्रष्टाचार का जनक था।
लेकिन उस सरकार द्वारा जिसमें मनमोहन सिंह वित्तमन्त्री हुआ करते थे और चिदम्बरम वाणिज्य मन्त्री हुआ करते थे, ''नियम-कानूनों को खत्म किये जाने और ''आर्थिक आजादीÓÓ के आने की प्रक्रिया की शुरुआत होते ही, हमें भ्रष्टाचार के उस असली 'दैत्यÓ का दर्शन हुआ जो पर्दे के पीछे सही मौके का इंतजार कर रहा था। नव उदारवादी परिवर्तन का शुरुआती दौर स्टॉक मार्केट में आए अभूतपूर्व उछाल का भी दौर था। और तबसे हमने बारम्बार व्यावसायिक मीडिया को इसका गुणगान करते देखा है कि शेयर की कीमतों में आई अचानक तेजी, कैसे उभरती हुई नवउदारवादी नीतियों की सफलता का प्रमाण है। 'सुपर शेयर दलालÓ हर्षद मेहता को रातों-रात 'बिग बुलÓ के तौर पर एक मीडिया स्टार बनाना इसी कहानी की एक शुरुआती कड़ी है।
लेकिन जल्द ही, जैसा कि हर उछाल के साथ होता है, बुलबुला फूट गया। 1992 की गर्मियों में यह बात जगजाहिर हो गई कि शेयर की कीमतों में आई इस तेजी को हर्षद मेहता ने अपनी तिकड़मबाजी से अंजाम दिया है। यह एक आसान तिकड़म था। प्रतिभूतियों को एक निश्चित अवधि (रिपो•ा) के बाद खरीदने या बेचने का समझौता, एक बैंक के साथ दूसरे बैंक के सौदे में एक प्रमुख विकल्प होता है। प्राय: ऐसा सौदा बिचौलिए दलालों के माध्यम से किया जाता है। इसमें प्रतिभूतियों का वास्तव में हस्तानान्तरण नहीं होता बल्कि, बैंक रसीद के माध्यम से खरीद (या ऋण) के मामलों में यह सुनिश्चित करता है कि प्रतिभूतियों का वास्तव में अस्तित्व है। हर्षद मेहता ने कुछ ऐसे बैंकों को खोज निकाला जो एक शुल्क के भुगतान पर ऐसी प्रतिभूतियों के लिए बैंक रसीद जारी करने के लिए तैयार थे जिनका अस्तित्व ही नहीं था। इसके बाद इन प्रतिभूतियों में निवेश किया गया और चूँकि, इसकी वजह से कीमतें ऊपर जा रही थीं, अत: उनकी पुनर्खरीद भी आसान थी और इस तरह हर्षद मेहता और उसके सहयोगियों के पास बेहिसाब पैसा आ गया। जब इस घोटाले का भण्डाफोड़ हुआ तो कीमतें मुँह के बल गिर गईं और इसके अनेक शिकारों में से विजया बैंक का अध्यक्ष भी था, जिसने खुदकुशी कर ली। यह अकेला घोटाला आने वाले समय का संकेतक था और निश्चित तौर पर उस एक घोटाले में इतना पैसा बर्बाद हुआ जो पूरे एक दशक या उससे अधिक समय में लाइसेंस राज के सब इन्स्पेक्टरों के द्वारा घूस में नहीं लिया जा सकता था। बाद में पता चला कि हर्षद मेहता गैंग में निवेश करने वालों में स्वयं तत्कालीन वाणिज्य मन्त्री चिदम्बरम, अपने पत्नी के नाम पर किए गए निवेश के माध्यम से शामिल थे। और बाद में यह भी सामने आया कि इन शेयरों को ''प्रमोटर कीमतÓÓ पर यानी बाजार मूल्य से बहुत ज्यादा नीचे दामों में खरीदा गया था। चिदम्बरम को बेआबरू होकर इस्तीफा देना पड़ा लेकिन इसकी कोई सीबीआई जाँच नहीं हुई। जब सीबीआई जाँच के लिए याचिका दाखिल की गई तो भाजपा के तत्कालीन राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने चिदम्बरम की कामयाबी के साथ पैरवी की। 'चिदम्बरमोंÓ और 'जेतलियोंÓ के बीच कभी इस बारे में कोई राजनीतिक मतभेद नहीं रहा है कि क्या सही और क्या गलत है।
हर्षद मेहता घोटाला आने वाले दशकों के नवउदारवादी भ्रष्टाचार के लिए एक 'आदर्शÓ साबित हुआ। एक वर्ष पूर्व शशि थरूर को भी बेइज्जत होकर विदेश राज्य मन्त्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उसने एक ''मित्रÓÓ के नाम पर बाजार मूल्य से बहुत कम कीमतों पर शेयर हासिल किए थे और चिदम्बर के साथ घटी पूर्ववर्ती घटना की ही तरह इस घोटाले में किसी तरह की जाँच की इजाजत नहीं दी गई।
इन तमाम सालों में लगातार बढ़ रहे मुक्त बाजार चोरियों और घोटालों के बीच व्यावसायिक मीडिया और सरकार ने लोगों का ध्यान बँटाने के लिए जनसम्पर्क के तरीकों का विकास कर लिया। जैसा कि चिदम्बरम के साथ हुआ और सम्भवत: उतने ही घमण्डी अमरीका प्रशिक्षित थरूर के साथ भी हुआ कि उन्हें घोटाले के चरम बिन्दु पर ही इस्तीफा देना पड़ा, जिससे कि यह बात सुनिश्चित की जा सके कि इन कारनामों जल्दी ही भुला दिया जाएगा, वक्त गुजर जाएगा और ये महानुभाव मुक्त बाजार का गुणगान करने के लिए पुन: अवतरित होंगे। साथ ही व्यावसायिक मीडिया इस बात को सुनिश्चित करेगी कि बुरी यादों को ताजा नहीं किया जाएगा।
किन्तु इस सबसे अलग, लेकिन उपयोगी तरीका था, पुराने ढंग के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का, जोकि प्राय: छोटे व्यवसायियों को परेशान करने वाले छुटभैयों के खिलाफ केन्द्रित होता था। यह एक अर्थ में एक सांसारिक संयोग है, लेकिन दूसरे अर्थों में नहीं, क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की शुरुआत अन्ना हजारे द्वारा महाराष्ट्र में 1991 में की गई। एक सेवानिवृत्त सैनिक हजारे इमरजेंसी के दौरान ग्रामीण महाराष्ट्र में प्रकट हुए और शराब विरोधी जुझारू दस्तों का गठन किया, जो फसाद करने और शराबियों और शराब बेचने वालों को कोड़े लगाने का काम करता था। इस गैर राजनीतिक गांधीवादी ने अपनी गतिविधियों को एनजीओ के पैसे से 'आदर्श ग्रामÓ बनाने और इस तरह से बढ़ते हुए ग्रामीण असंतोष का अराजनीतिक समाधान प्रस्तुत करने की ओर आगे बढ़ा। आजमाए हुए नुस्खे को अमल में लाते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने जंगल विभाग के सब इन्सपेक्टरों जैसे छुटभैये लोगों को अपना निशाना बनाया व प्रेस का ध्यान अपनी ओर खींचने की क्षमता को और माँजता गया।
आकर्षण में बने रहने की बेचैन चाहत के वशीभूत हजारे ने आमरण अनशन की घोषणा करने का दाँवपेंच विकसित किया, जो हर बार कुछ ही दिनों बाद ही 'शानदार सफलताÓ के दावे वाले प्रेस वक्तव्य के साथ समाप्त हो जाती थी। 2००3 में एक आमरण अनशन महाराष्ट्र के स्थानीय राजनेताओं के खिलाफ जाँच की घोषणा के साथ समाप्त हुआ। 2००6 में सूचना अधिकार कानून 2००5 में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ एक और आमरण अनशन एक प्रेस विज्ञप्ति के साथ उस समय समाप्त हो गया, जब प्रस्तावित संशोधन में फेरबदल का आश्वासन मिला।
2०11 की शुरुआत से ही मनमोहन सरकार एक के बाद एक अभूतपूर्व घोटालों के पर्दाफाश से परेशान रही है। 2जी घोटाला के चलते केन्द्रीय संचार मन्त्री अन्दिमुत्तु राजा को इस्तीफा देना और जेल जाना पड़ा। ऐसा समझा जाता है कि इसमें उन्होंने सरकार को हजारों करोड़ रुपये का चूना लगाया था। उसके बाद हजारे ने, जो एक अरसे से जनता की निगाहों में नहीं आ पाए थे, लोकपाल विधेयक न लाए जाने की स्थिति में आमरण अनशन की घोषणा की। लेकिन और दिलचस्प समाचारों जैसे, जपान के भूकम्प, अरब विद्रोह और क्रिकेट मैच वगैरह के चलते उस पर किसी का खास ध्यान नहीं गया।
इसी बीच 17 मार्च को 'हिंदूÓ ने जब अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गए गुप्त केबलों का पर्दाफाश करना शुरू किया तो यह पता चला कि लोकसभा में परमाणु संधि पर विश्वास मत हासिल करने के ठीक पहले 17 जुलाई 2००8 को कांग्रेसी नेता सतीश शर्मा के एक निकट सहयोगी ने अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी को रुपयों से भरे दो सूटकेस दिखाए थे। जो कि पार्टी द्वारा सांसदों को खरीदने के लिए जुटाए गए 5० से 6० करोड़ रुपये के फण्ड का एक हिस्सा भर था। यह ऐसा घोटाला था जिसमें सरकार ऊपर से नीचे तक शामिल थी।
एक सीमा का अतिक्रमण हो चुका था। हालांकि मनमोहन सिंह ने इसे सिरे से नकार दिया, लेकिन इस पर विश्वास करने की कोई वजह नहीं थी कि क्यों अमेरिकी दूतावास का एक कर्मचारी अपने ही गृह मन्त्रालय को गलत सूचना देगा।
मनमोहन सिंह और चिदम्बरम सरकार बेनकाब हो चुकी थी। हर्षद मेहता के शुरुआती दिनों से लेकर लगातार चोरियों और भ्रष्टाचार के एक सिलसिले ने, जिसकी चरम परिणति अकल्पनीय 2जी घोटाले के रूप में हुई, इसने भारतीय जनतन्त्र में जो कुछ भी 'शेषÓ था, उसे भी खोखला कर दिया, लेकिन उनका शासन अभी भी बदस्तूर जारी था। व्यावसायिक मीडिया अभी भी उनकी सेवा में मौजूद थी और अकूत धन की ताकत के बल पर उन्हें बेहतरीन जनसम्पर्क विशेषज्ञों की सुविधा उपलब्ध थी, जिन्हें मुक्त बाजार से किराए पर आसानी से खरीदा जा सकता था।
अत: अब वह घटना घटी जिसे हम ''अन्ना हजारे घोटालाÓÓ कह सकते हैं। यदि हम 14 से 22 मार्च 2०11 के बीच भारतीय स्रोतों तक सीमित गूगल न्यूज को खंगालें तो हमें सिर्फ तीन ऐसे लेख मिलते हैं जिसमें अन्ना हजारे का उल्लेख किया गया था। बुधवार 23 मार्च को अन्ना हजारे ने यह घोषणा की कि प्रधानमन्त्री कार्यालय से उसी दिन उनके पास टेलीफोन आया है। बकौल अन्ना, प्रधानमन्त्री कार्यालय का कहना था कि वे भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक पर बातचीत को तैयार हैं। 24 मार्च से 31 मार्च के बीच भारतीय स्रोतों तक सीमित गूगल न्यूज को खंगालने पर कुल 4,281 ऐसे लेख मिले, जिनमें अन्ना के नाम का उल्लेख था और अप्रैल में अभूतपूर्व मीडिया गहमागहमी के बीच नाटक का अंतिम अंक खेला गया, जिसमें कुछ दिनों का आमरण अनशन था, सोनिया गांधी और विभिन्न बॉलीवुड की हस्तियों द्वारा अपीलों पर अपीलें थीं और फिर सम्भवत: पटकथानुसार सरकार ने ''घुटने टेकÓÓ दिये और एक समिति बनाने तथा भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाने पर सहमत हो गई।
तो, हमें अपनी बात बहुत स्पष्टता से कह देनी चाहिए कि व्यवस्था ने अन्ना हजारे के ''आमरण अनशनÓÓ से पैदा हुए जनदबाव के आगे घुटने नहीं टेके। इस ''गांधीवादी गैर राजनीतिकÓÓ, ''नागरिक समाजÓÓ के स्वयम्भू प्रवक्ता के आमरण अनशन पर तबतक कोई ध्यान नहीं दे रहा था, जबतक कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसको फोन नहीं किया। व्यवस्था ने ही प्रचार का यह तूफान खड़ा किया, जिससे कि उसके आगे घुटना टेकने का प्रहसन किया जा सके।
इस दौर में बिना प्रभावित हुए मीडिया का सामना करना, बहुत ही मुश्किल था। लेकिन बेहतर से बेहतर ढंग से संगठित घोटाले भी आखिरकार बिखर ही जाते हैं और इसके बिखराव की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। यह कल्पना करना भी बहुत ही आसान है कि जो अच्छे नीयत वाले लोग, जो इस मीडिया तूफान के चलते इसके प्रभाव में आए, मसलन, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश, अब अन्ना के नरेन्द्र मोदी जयगान के बाद बहुत सहज महसूस नहीं कर रहे हैं।
चलते-चलते कुछ बुनियादी बातों का जिक्र कर लेतें हैं। मनमोहन सिंह, चिदम्बर और उनके अमेरिकी आकाओं की इस दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है गरीब होना, खासकर, अगर आप अमीरों के शासन की मुखालफत करें। इस मुक्त बाजार में हर कुछ बिकाऊ है, जिसमें सांसदों के वोट हैं, मीडिया है, केन्द्रीय मन्त्री हैं, ''न्यायÓÓ, ''जनतन्त्रÓÓ, ''सिविल सोसायटीÓÓ है और सम्भवत: ''गांधीवादी गैर राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताÓÓ भी। अन्ना हजारे का यह स्वांग इसलिए चल पाया कि अभी भी बहुत सारे ऐसे भले और इमानदार लोग हैं, जो इस बात पर यकीन करना चाहते हैं कि अभी भी इस व्यवस्था को आयोगों और विधेयकों द्वारा बदला जा सकता है। हालांकि सारे प्रमाण इसके खिलाफ हैं। हमारा सुझाव यही है कि हम उठ खड़े हों और अपनी चेतना को प्रधानमन्त्री कार्यालय के जनसम्पर्क विशारदों और मीडिया द्वारा प्रभावित होने से बचाएं।

श्रमजीवी पहल पत्रिका से साभार

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