Thursday, June 3, 2010

कर्मचारियों के खिलाफ दनादन याचिकाएं दायर करने वाली केंद्र सरकार से सुप्रीम कोर्ट ने कहा हिम्मत है तो आईएएस बाबुओं पर ऐसा ही करके दिखाओ

-सुप्रीम कोर्ट ने दिखाया सरकार को आइना

-चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के खिलाफ लगातार याचिकाएं दाखिल पर अदालत खफा
नई दिल्ली, एजेंसी : यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे शक्तिशाली संघीय सरकार का चरित्र है। वह सिर्फ कर्मचारियों को परेशान करने के लिए निरर्थक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर करती रहती है। इससे जितना संसाधन खर्च होता है उससे ज्यादा अदालत का समय जाया होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के कर्मचारी विरोधी चरित्र को उजागर करते हुए कहा कि हिम्मत है तो आईएएस-पीसीएस बाबुओं के खिलाफ याचिकाएं देकर दिखाओ।

चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों को लगातार चुनौती देने वाली अपीलें दाखिल करने वाले केंद्र को आड़े हाथ लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या उसमें इस तरह के मुद्दों पर आईएएस-आईपीएस अधिकारियों से निपटने की हिम्मत है? इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने अर्थहीन याचिकाएं दायर करने के लिए केंद्र की खिंचाई कर चुका है। नवनियुक्त प्रधान न्यायाधीश एचएस कपाडिय़ा ने तो कार्यालय संभालते ही मामूली याचिकाओं से कड़ाई से निपटने की बात कही थी।

बृहस्पतिवार को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के वकील से कहा, 'आप अक्सर श्रमिकों, खलासियों और चपरासियों के खिलाफ हमारे पास क्यों आते हैं? क्या आपमें आईएएस-आईपीएस अधिकारियों से निपटने की हिम्मत है। आप चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के खिलाफ याचिकाएं दाखिल करते रहते हैं, लेकिन आईएएस-आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ ऐसा नहीं करते। ऐसा इसलिए है कि आपमें हिम्मत नहीं है।Ó

शीर्ष अदालत ने रक्षा मंत्रालय में जरनैल सिंह को एक श्रमिक के तौर पर नियुक्त करने के पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के निर्देश को चुनौती देने वाली केंद्र की अपील खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।केंद्र के वकील वसीम अहमद कादरी के मुताबिक, हालांकि सिंह का चयन साक्षात्कार के बाद हुआ था, फिर भी उसे उस पद के लिए नियुक्ति नहीं किया जा सका क्योंकि वह पद एक नियत समय के लिए निर्धारित था। कादरी ने कहा कि मंत्रालय द्वारा सिंह को 10 मार्च 1990 को नियुक्ति देने पर विचार किया गया था जबकि नियमों के मुताबिक इस पद पर नियुक्ति के लिए अंतिम तिथि 25 मई 1989 है। सिंह ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के केंद्र के पक्ष में दिए गए फैसले को चुनौती दी थी। इसके बाद पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने केंद्र को सिंह को नियुक्त करने के निर्देश दिए। इसके खिलाफ केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।हाईकोर्ट ने कहा था कि चयन प्रक्रिया रोजगार कार्यालय के मार्फत पूरी की गई थी इसलिए सिंह संबंधित पद पर नियुक्ति पाने के हकदार हैैं। हालांकि इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश दे दिया था लेकिन इस मामले को सुनवाई के लिए खुला रखा।

यह चरित्र केंद्र सरकार का देश की सबसे बड़ी श्रमिक आबादी के खिलाफ आज से नहीं है। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट को अब इसकी सुध आई है। शायद इसीलिए श्रमिक वर्ग अदालतों से न्याय की उम्मीद छोड़ चुका है। पिछले दो दशक से अदालतों द्वारा श्रमिकों के खिलाफ लिए गए निर्णयों ने भी अब न्याय पाने से नाउम्मीद हो चुका है।

4 comments:

  1. बिल्कुल सही किया कोर्ट ने...

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  2. भला इन खुले ----- के विरोध में किस की हिम्‍मत है अदालत जाने की। चलो न्‍यायपालिका के कुछ तो कहा। बढिया जानकारी।

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  3. बहुत सही -कम से कम इस टिप्पणी से तो सरकार और बड़े बाबू लोग सबक लें !

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  4. चाहे जिस वजह से भी हो सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा है तो उसकी इस बात का स्वागत होना चाहिए। देर से ही सही और नाम के लिए ही सही, पर न्यायपालिका के मुंह से यह तो निकला कि मजदूर वर्गों के प्रति सरकार का रवैया भेदभावपूर्ण होता है।
    लेकिन स्वागत करते हुए हम यह नहीं भूल सकते कि नब्बे के दशक के बाद जैसे जैसे सरकार की नीतियां जनविरोधी होती गई, अदालतों का रुख भी मजदूर विरोधी होता गया। चाहे सेज के विरोध का हो या हड़तालों को कुचलने का अदालतें सरकार के भी आगे-आगे चलती दिखती हैं। स्वाभाविक है कि मजदूर वर्ग सरकार और अदालतों को एक-दूसरे से अलग मानकर नहीं चल सकता, न ही उसे चलना चाहिए। उसे अपने अधिकारों के लिए सरकार से या दूसरों से भीख मांगने की भी जरूरत नहीं है। देश का सबसे बड़ा तबका होने की वजह से देश के संसाधनों पर भी पहला हक उसका है। उसे बस उस हक के सही इस्तेमाल का फैसला करना है।

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