Friday, June 4, 2010

हड़तालों की अकाल मौत से उपजते सवाल

(प्रणव एन का लिखा यह विश्लेषणात्मक लेख मुंबई से प्रकाशित स्वतंत्र जनसमाचार के ताजा अंक में छपा है। इसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं। -मजदूरनामा टीम)
पहले मोटरमैन और फिर एयर इंडिया कर्मी
प्रणव एन.
हमारे चारों तरफ का माहौल कैसे मजदूर विरोधी, कर्मचारी विरोधी होता जा रहा है, इसके उदाहरण हमें लगातार मिल रहे हैं, घटनाओं के जरिए भी और घटनाओं के अभाव के जरिए भी। आखिर सदियों के संघर्ष से हासिल अधिकार और रियायतें मजदूर तबकों से अलग-अलग बहानों से छीने जा रहे हैं लगातार.. और व्यापक स्तर पर मजदूर वर्ग खामोश है, यह भी अपने आप में बहुत कुछ बताता है। चाहे आठ घंटे काम का सवाल हो या नियमित छुट्टियों का या फिर ओवरटाइम आदि का - मजदूर वर्ग इन सब पर लगातार हमला चुपचाप झेलता रहा है तो यह इस बात का भी सबूत है कि चारों ओर मजदूर विरोधी ताकतें इस तरह काबिज हैं कि मजदूर अपने हक का सवाल उठाने की स्थिति में भी नहीं रह गया है। यह तो हुआ घटनाओं का अभाव। मगर जो इक्का-दुक्का घटनाएं हो रही हैं, वे भी मजदूरों के लिए कम बड़ा सबक नहीं है। उन घटनाओं को जिस तरह दबाया जा रहा है वह भी मजदूर तबकों को संदेश देने का एक जरिया है कि अगर तुमने अपनी बात रखने की हिम्मत की तो इसी तरह कुचल दिए जाओगे। ताजा उदाहरण तो एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल का है, लेकिन इससे पहले मुंबई में हुई मोटरमैनों की हड़ताल का वाकया याद कर लेना बेहतर होगा।मुंबई लोकल ट्रेन चलाने वाले मोटर मैनों की 3-4 मई को हुई हड़ताल ने पूरी मुंबई को अस्तव्यस्त कर दिया था। मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल सेवा ठप हो गई थी। निश्चित रूप से यह उस हड़ताल की सफलता थी जिसके लिए मोटरमैनों और उनके संगठन को बधाई दी जानी चाहिए थी, मगर, पूरी मुंबई जैसे उन पर बौखलाई हुई थी। अलग-अलग स्टेशनों पर घंटों से अटके यात्री अपनी परेशानियों के लिए उन्हें कोस रहे थे। कई स्टेशनों पर यात्रियों का गुस्सा तोडफ़ोड़ के रूप में प्रकट हुआ।देखा जाए, तो मोटरमैनों ने अपने हक (वे छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग कर रहे थे) के लिए संघर्ष का रास्ता चुना था। और वे किसी असंवैधानिक, गैरकानूनी या समाजविरोधी रास्ते पर नहीं बढ़े थे। संगठित रूप में सरकार के सामने अपनी मांगें रखना और उन मांगों पर जोर देने के लिए हड़ताल करना कर्मचारियों के मान्य अधिकारों में शामिल हैं। इसके बावजूद मुंबई में इन्हीं मोटरमैनों की बदौलत रोज लोकल सेवा का लाभ उठाने वाले यात्री इन पर बिफरे पड़े थे। मीडिया इन्हें इस रूप में चित्रित कर रहा था जैसे ये देश विरोधी तत्व हों। संसद में सारे दलों का जोर इस बात पर था कि जैसे भी हो तुरंत हड़ताल तुड़वाई जानी चाहिए। सीपीएम और सीपीआई के कुछ सांसदनों ने नाम के लिए ही सही, पर हड़ताली मोटरमैनों के साथ दिखने की कोशिश जरूर की, पर आम तौर पर सभी दलों के सांसद हड़ताल को कुचल दिए जाने के पक्ष में दिख रहे थे। कहा जा रहा था कि कुछ लोगों के गिरोह को इस बात की छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वे हमारी वित्तीय राजधानी को जब चाहें बंधक बना लें। शिवसेना ने इस हड़ताल का समर्थन किया था। मगर, संसद में अन्य दलों की तरफ से हो रही लानत मलामत और मुंबई में लोकल यात्रियों के गुस्से को देखते हुए वह भी अपने रुख पर कायम नहीं रह सकी। इस पूरे विवाद के बीच में शिवसेना प्रमुख के आदेश का हवाला देते हुए शिवसेना ने खुद को इस हड़ताल से अलग कर लिया। राज ठाकरे की एमएनएस ने तो खुली गुंडागर्दी दिखाते हुए धमकी दी कि मोटरमैन अपने आप हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट आएं वरना एमएनएस अपनी ही स्टाइल में हड़ताल तुड़वाएगी।चारों तरफ से बल पाकर सरकार ने भी एस्मा लगा कर हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। मोटरमैनों पर गिरतारी की तलवार लटकने लगी। आखिर इस चौतरफा दबाव में मोटरमैनों को बिना शर्त हड़ताल वापस लेनी पड़ी।कुछ ऐसी ही गति एयर इंडिया कर्मियों की हड़ताल की भी हुई। एयर कॉरपोरेशन एप्लॉयीज यूनियन (एसीईयू) और ऑल इंडिया एयरक्राट इंजीनियर्स एसोसिएशन (एआईएईए) द्वारा आहूत हड़ताल पूरी तरह सफल रही। दो दिनों तक एयर इडिया की उड़ानें अस्त व्यस्त रहीं। इस बार भी दृश्य करीब-करीब वैसा ही थी जैसा मोटरमैनों की हड़ताल के वक्त था। यानी हड़ताल सफल लेकिन नतीजा ठन-ठन गोपाल। चारों तरफ से शोर मच रहा था, हड़ताल के कारणों को समझना तो दूर की बात, कोई उस बारे में कुछ सुनने को भी तैयार नहीं था। इस बार तो हड़ताल की भत्र्सना करने के लिए मेंगलूर हादसे का बहाना भी था। कहा जा रहा था कि हड़ताली कर्मचारी कितने संवेदनहीन हैं कि मेंगलूर हादसा के दो दिनों बाद ही हड़ताल पर चले गए। यह पूछने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही थी आखिर कर्मचारियों का मुंह बंद करने वाला आदेश यानी उनके मीडिया से बात करने पर रोक लगाने वाला आदेश जारी करने की जरूरत एयर इडिया प्रबंधन को क्यों पड़ी। वहां ऐसी क्या खिचड़ी पकाई जा रही है जिसे पूरी दुनिया से गुप्त रखना उन्हें बहुत जरूरी लग रहा है। हद तो यह कि एयर इंडिया के अरबों रुपए घाटे का ठीकरा भी इन्हीं कर्मचारियों के सर फोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि एयर इंडिया को घाटे से उबारने के नाम पर जिन फॉर्युलों पर काम चल रहा है उसका खामियाजा भी एयर इंडिया कर्मचारियों को ही भुगतना होगा। इसीलिए कर्मचारी संगठनों की तरफ से मीडिया में बयानबाजी का सिलसिला शुरू हो जाने से पहले ही उनकी आवाज दबा देने के लिए यह आदेश निकाला गया जिसे हाई कोर्ट के फैसले पर आधारित बताया जा रहा है।बहरहाल, कर्मचारियों के मीडिया से बात करने पर रोक के इस आदेश के खिलाफ दो यूनियनों - एसीईयू और एआईएईए - ने हड़ताल की घोषणा कर दी। हड़ताल प्रभावी रही और एयर इंडिया को 100 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। लेकिन, हड़ताल होते ही इस बार भी हड़ताल के खिलाफ अभियान शुरू हो गया। मीडिया बढ़-चढ़ कर हड़ताली कर्मचारियों को संवेदनहीन, गैर जिमेदार, स्वार्थी वगैरह बता रहा था। उनकी मांगों पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी। मगर, इस बार बात सरकार और मीडिया तक सीमित नहीं रही। अदालत ने भी हड़ताल को कुचलने में सक्रिय भूमिका निभाई। दिल्ली हाई कोर्ट ने आनन फानन हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया। केंद्रीय कैबिनेट ने नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को पूरी छूट दे दी कि जैसे चाहें इस हड़ताल से निपटें। नतीजा यह हुआ कि कोर्ट के आदेश के बाद हड़ताल तोड़ कर काम पर लौट जाने के बावजूद एयर इंडिया के कर्मचारियों को उनकी गुस्ताखी की पूरी सजा मिली। हड़ताली कर्मचारियों में से 58 को बर्खास्त कर दिया गया। 24 कर्मचारी निलंबित किए गए। बहुतों को नोटिस दिया गया। दोनों यूनियनों की मान्यता समाप्त कर दी गई। ऐसे कड़े कदम एयर इंडिया के इतिहास में कभी नहीं उठाए गए थे। इन कठोर कदमों के विरोध में एसीईयू ने 12 जून से फिर हड़ताल पर जाने की धमकी दी है।सवाल यह है कि क्या इन घटनाओं में हमारे लिए कोई सबक है? आखिर हड़ताल कोई अजूबी चीज तो नहीं हैं। स्वतंत्र भारत में हड़तालें होती ही रही हैं। अपने हकों की मांग करते, सरकार या प्रबंधन से लड़कर उन्हें हासिल करते मजदूर न तो विकास विरोधी साबित हुए और न ही उससे देश का कोई नुकसान हुआ। उल्टे, बड़ी संया में लोगों की परचेजिंग पावर बढऩे से अर्थव्यवस्था में गति ही पैदा हुई। मगर, यह दो दशक पहले तक की सचाई है। 1990 के बाद से धीरे-धीरे यूनियनें अप्रासंगिक सी होती चली गई हैं। अब अपवादों को छोड़ दें तो न तो कहीं सक्रिय यूनियनें दिखती हैं, न ही उनके तौर-तरीके। प्रबंधन मजदूरों की तरफ से चूं तक सुनने के मूड में नहीं होता। मीडिया का रुख तो हमें हर हड़ताल में दिखता है। सरकार भी हमेशा हड़ताल के खिलाफ और प्रबंधन के पक्ष में ही मोर्चा बांधे रहती है। अदालतें भी मजदूरों के हितों या हकों की आवाज सुनने को तैयार नहीं रहती। अपने हकों के लिए जूझते हुए मजदूर उसे भी अच्छे नहीं लगते।एक वाक्य में कहा जाए तो आज सिर्फ मजदूर ही मजदूर के साथ बचा है। उसके अलावा कोई भी तबका उसके साथ खड़ा होने वाला नहीं रह गया है। या तो अपने हितों को देखते हुए या फिर मीडिया के दुष्प्रचार का शिकार होकर नासमझी में, पर सभी तबके मजदूर विरोधी खेमे में खड़े नजर आ रहे हैं।ऐसे में, सवाल है कि मजदूरों को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए? क्या विरोधी वर्गों की साजिशों को सफल हो जाने देना चाहिए?कोई भी इसंाफ पसंद व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि मजदूरों को अपने हक के लिए लडऩा छोड़ देना चाहिए। लेकिन लडऩे का ढंग जरूर बदलना चाहिए। अगर एक तरह की शैली पिट रही हो, तो शैली बदलना तो युद्ध कला का एक अहम हिस्सा है। मजदूर तबकों को या इनके सचेतन हिस्सों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि मोटर मैनों की हड़ताल के दौरान राज ठाकरे ने खुली धमकी देने की जुर्रत की। वे कौन से दबाव रहे जिनकी वजह से शिवसेना को समर्थन वापस लेना पड़ गया?बेशक इन दोनों के पीछे मुंबई के वे आम लोग थे जो रोज लोकल से यात्रा करते हैं और जिन्हें मोटरमैनों की इस हड़ताल की वजह से परेशानियां झेलनी पड़ रही थीं। इन यात्रियों का बड़ा हिस्सा खुद कामगार है जो अपने कार्यस्थल पहुंचने की जद्दोजहद में था। मोटरमैनों की हड़ताल छठे वेतन आयोग के मुताबिक वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हुई थी जिससे इन यात्रियों के हितों का कोई लेना-देना नहीं था, हां हड़ताल का खामियाजा जरूर इन्हें भुगतना पड़ रहा था, दतर न पहुंच पाने की वजह से एक दिन का वेतन कटवा कर या एक सीएल कटवा कर। ऐसे में इनका गुस्सा स्वाभाविक था। इसी गुस्से का फायदा तममा मजदूर विरोधी तबकों ने उठाया और हड़ताल के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया कि एसमा लगाने की घोषणा करने में सरकार को कोई हिचक नहीं हुई।यहीं मजदूर तबकों को अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है। उन्हें यह समझना होगा कि सरकार, पुलिस, अदालतें, मीडिया सब भले प्रबंधन की तरफ खड़ी हो जाएं देश की मेहनतकश आबादी कभी उनके खिलाफ नहीं हो सकती। वह गुमराह तो हो सकती है मगर स्थायी तौर पर उनके खिलाफ नहीं हो सकती क्योंकि उसके हित मजदूर वर्ग से जुड़े हुए हैं। इसलिए आज की जरूरत यह है कि मजदूर प्रबंधन, सरकार और पूरे सरकारी तंत्र के खिलाफ संगठित हो और साथ ही समाज के अन्य मेहनतकश तबकों को अपने साथ ले। ये दोनों काम एक साथ हो सकते हैं। शर्त सिर्फ यह है कि मजदूरों को अपनी दृष्टि का थोड़ा विस्तार करना होगा। वेतन-भत्ता बढ़ाने वाली अर्थवादी मांगों से ऊपर उठते हुए राजनीतिक लड़ाई को ओर बढऩा होगा। दूसरे शब्दों में उन्हें सिर्फ एयर इंडियाकर्मी या रेलवे मोटरमैन की तरह नहीं बल्कि एक मजदूर के रूप में सोचना होगा और ऐसे बड़े मुद्दे तलाशने होंगे जिनसे सभी मजदूरों के हित जुड़ते हों चाहे वह रेलकर्मी हो या विद्युतकर्मी या गांव का खेतहीन मजदूर हो या फिर शहर का दिहाड़ी मजदूर।सोचिए अगर मुंबई में मोटरमैनों ने कोई ऐसा मुद्दा चुना होता जिससे लोकल में यात्रा करते लोगों के हित भी जुड़े होते तो क्या वे इस हड़ताल से इतने बौखलाए हुए होते? अगर उनका समर्थन इस हड़ताल को होता क्या शिवसेना इस हड़ताल को समर्थन देकर भी इस तरह से मुकरती या राज ठाकरे कर्मचारियों को इस तरह धमकाने की हिम्मत करते? और क्या ऐसा होता कि एयर इंडिया के कर्मचारियों पर गाज गिर रही है तो देश भर की अन्य सारी यूनियनें उदासीन बैठी हुई हों। एक वाक्य में कहा जाए तो अब एक खास ट्रेड तक सीमित लड़ाई का दौर नहीं रहा। अब वक्त आ गया है इस लड़ाई को व्यापक रूप देने का। ऐसे संगठन भी अस्तित्व में आ रहे हैं, वे मंच भी उपलब्ध हो रहे हैं जो ऐसी व्यापक लड़ाई को संभव बना सकते हैं। उदाहरण के लिए ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल बन चुकी है जो पूरे देश के सर्वहारा वर्ग का जनराजनीतिक संगठन है। इससे जुड़कर अलग-अलग फील्ड के मजदूर भी साझा लड़ाई को अंजाम दे सकते हैं। इसी प्रकार मजदूरनामा नाम का एक ब्लॉग (mazdoornama.blogspot.com) भी इस साल मई दिवस पर अस्तित्व में आ चुका है जो पूरे देश के मजदूर वर्ग से जुड़ी खबरों को मजदूर वर्ग के ऐंगल से प्रस्तुत करता है। अंत में बात वहीं आकर रुकती है कि इन औजारों का इस्तेमाल तो देश के मजदूरों को ही करना है। अगर मजदूर वर्ग और खासकर उसका सचेतन हिस्सा इन औजारों के महत्व को पूरी तरह नहीं समझता या इनका अधिकाधिक इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय नहीं होता तो ये औजार भी जंग खाकर बेकार हो जाएंगे।

2 comments:

  1. सवाल ये भी है कि जब हड़ताल का असर था तब उसके द्वारा कितने नाजायज दवाब भी तो बनाए गए। जाहिर है जनता उससे चिढ़ गई। इसलिए वो उसका समर्थन नहीं करती। पर हड़ताल का बेअसर होना वाकई चिंता की बात है। अब तो कोर्ट भी इसपर सख्त रुख अपनाने लगीं हैं। आखिर कोई तो उपाय खोजना ही होगा।

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  2. आज दिनांक 9 जून 2010 को दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट हक के लिए शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब के लिए http://blogonprint.blogspot.com/2010/06/blog-post_09.html लिंक पर क्लिक कीजिए।

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