देवेन्द्र प्रताप
वर्ष 2008 में आयी अमेरिकी आर्थिक मंदी ने न सिर्फ अमेरिका को बल्कि एक मायने में समस्त विश्व को अपने चपेट में लिया था। इसकी गम्भीरता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 2009 में हुए जी-20 सम्मेलन में आर्थिक मंदी ही केन्द्रीय मुद्दा था। आज जबकि एक साल बाद पुन: जी-20 देशों का कनाडा में सम्मेलन होने जा रहा है ऐसे में आर्थिक मंदी और उससे निपटने के लिए पिछले सम्मेलन में किए गये वादों और उसके प्रयासों को याद करना निहायत जरूरी है।
इतिहास के आइने से
दो साल पहले अमेरिका में आयी मंदी का असर इतना तगड़ा था कि सिर्फ 2008 में ही मात्र एक साल के अन्दर वहां के पूंजीपतियों ने अपने मुनाफे को बचाने के लिए 26 लाख को नौकरी से निकाल दिया था। 1930 की आर्थिक मंदी के बाद जब पूंजीपतियों के बीच बाजार के बंटवारे के हुए द्वितीय विश्व युद्ध हुआ था तो उस समय भी जबरदस्त तौर पर बेरोजगारी बढ़ी थी। लेकिन वर्तमान आर्थिक मंदी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हंै। अमेरिका में दिसंबर 2008 में यानी सिर्फ एक माह में पाँच लाख 24 हज़ार लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। दिसंबर में जो नौकरियाँ घटीं उनमें से अधिकतर सर्विस सैक्टर की थीं जहाँ दो लाख 73 हज़ार लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। नवंबर में अमरीका में पाँच लाख 84 हज़ार नौकरियाँ गईं जबकि अक्तूबर में चार लाख 23 हज़ार नौकरियाँ गई थीं।वर्ष 2008 में अमेरिका में पैदा हुई बेरोजगारी पिछले 16 सालों में सबसे ज्यादा थी। दिसंबर 2008 में बेरोजगारी की दर 7.2 प्रतिशत पर पहंच गयी थी। जबकि यही फरवरी 2009 में बेरोगारी दर 8 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गयी थी।विमान कंपनी बोइंग ने भी इस साल 4500 जबकि टाटा स्टील की सहायक कंपनी कोरस ने 3500 लोगों को नौकरी से बाहर किया। कोरस के इन कर्मचारियों में से सिफऱ् ब्रिटेन में ही 2500 लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। गौरतलब है कि कोरस के दुनियां भर में 42 हज़ार कर्मचारी हैं, जिनमें से 24 हज़ार सिर्फ ब्रिटेन में हैं। अमरीका की कार कंपनी जनरल मोटर्स ने भी पूरी दुनिया में अपने कारखानों में काम करने वाले करीब 47 हज़ार मजदूरों और कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया था। उसे दुनिया भर के अपने 14 कारखानों को बंद करना पड़ा था। यही काम अमेरिका की क्राइसलर कंपनी ने भी किया था। इस मंदी के कारण उसे तीन हजार मजदूरों को नौकरी से बाहर करना पड़ा। अमेरिका की नामी गिरामी कार कम्पनी फोर्ड को 14.6 अरब डॉलर का नुकसान हुआ जो उसके लिए किसी सदमें से कम नहीं था। विश्व की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी टोयोटा को वर्ष 2008 में कारों की माँग में भारी कमी आ जाने की वजह से 150 अरब जापानी येन यानी एक अरब 65 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ था। जाहिर है पूंजीपतियों ने अपना यह तथाकथित घाटा भी मजदूरों के पेट पर लात मार कर पूरा करने का काम किया।
दुनिया भर में इस मंदी का सबसे ज्यादा असर आईटी पेशेवरों पर पड़ा था। भारत भी इससे अछूता नहीं था। वर्ष 2008 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्तूबर से दिसंबर के बीच भारत में एक मात्र आई टी क्षेत्र में ही पाँच लाख लोगों का रोजग़ार छिन गया था। यह आँकड़ा भारत के केंद्रीय श्रम मंत्रालय का है और वो भी सिफऱ् संगठित क्षेत्रों से मिली सूचनाओं के आधार पर। इनमें गुजरात के हीरा कारोबारियों के यहाँ काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर शामिल नहीं हैं और ना सिर्फ एक साल पहले तक गुलजार नजऱ आने वाले कर्नाटक में बेल्लारी के लौह खनन उद्योगों में रोजग़ार गँवाने वालों की गिनती है। यही वह पृष्ठभूमि थी जब पिछले वर्ष लंदन में दुनिया भर से बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी लंदन में इकठ्ठा हुए थे। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिएअमरीकी राष्ट्रपति ओबामा समेत कई बड़े नेता लंदन पहुंच चुके थे। चेहरे पर मुखौटे लगाए और चोग़े पहने हुए पूंजीवाद विरोधी नारे लगाने वाले हज़ारों प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस की छिटपुट झड़पें भी हुईं थीं। मैट्रोपोलिटन पुलिस के अनुसार पिछली बार सुरक्षा इंतज़ामों के लिए ढाई हज़ार अतिरिक्त पुलिसकर्मी लगाये गये थे औऱ इस सुरक्षा अभियान पर कऱीब एक करोड़ डॉलर खर्च किया गया था। इन सबके बावजूद सम्मेलन हुआ और सम्मेलन में मौजूद देशों ने और खासकर अमेरिका और ब्रिटेन ने दुनिया को यह भरोसा दिलाया कि जल्दी ही इस आर्थिक मंदी से निपट लिया जायेगा। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के एक अनुमान के अनुसार वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से एक साल के अन्दर समूची दुनिया में पाँच करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी गँवानी पड़ी। आईएलओ के महानिदेशक हुआन सोमाविया का कहना है कि इसकी वजह से दुनिया भर में बेरोजग़ारी का आंकड़ा करीब सात प्रतिशत तक पहुँच गया। श्रम संगठन का कहना है, कि फि़लिप्स, होमडिपो, आईएनजी और कैटरपिलर जैसी कंपनियों में हुई छँटनियों के कारण बेरोजगारी में भयंकर इजाफा हुआ है। पिछले वर्ष सबसे अधिक नई नौकरियों के अवसर एशिया में पैदा हुए, दुनिया भर की कुल नई नौकरियों का 57 प्रतिशत हिस्सा एशियाई देशों से आया। आईएलओ का कहना है कि दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी की वजह से एशियाई देशों के नौकरी बाज़ार में बढ़ोतरी की जगह छँटनी का दौर शुरु हो गया जिसने दुनिया के सामने एक भयंकर संकट पैदा कर दिया है। भारत और चीन जैसे देश दुनिया भर से मिलने वाले ऑर्डरों की कमी की वजह से बुरी हालत में जा पहुंच सकते हैं। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था की खुद अपनी ही संस्थाएं पिछले वर्ष हुए सम्मेलन में किए गए वायदों की कलई खोल देती हैं।
जनता का विरोध, हुक्मरानों की चुप्पी
पिछले वर्ष की तरह इस बार भी टोरंटो शहर में जी-20 सम्मेलन स्थल के बाहर शनिवार को करीब 10,000 लोगों के विरोध-प्रदर्शन के दौरान छिटपुट हिंसा भी हुई। सिन्हुआ समाचार एजेंसी के अनुसार पुलिस ने 100 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया और उन्हे तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे। जवाब में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पत्थर, बोतलें और ईटे बरसाईं और सुरक्षा घेरा तोड़ते हुए कांफ्रेंस सेंटर में दाखिल होने का प्रयास किया। इस पर काबू पाने के लिए 12,000 पुलिस अधिकारियों को तैनात किया गया था। इन प्रदर्शनकारियों के अनुसार सम्मेलन में बैठने वाले पूंजीवादी लोग ही बेरोजगारी, पर्यावरण की तबाही और अन्य मानवीय और पर्यावरणीय विभीषिकाओं के लिए जिम्मेदार हैं। उनकी बात को एक सिरे से खारिज करना इसलिए भी मुश्किल है कि इस बार कनाडा में हुए जी-20 देशों के सम्मेलन में भी नेताओं ने वही सब नाटक दोहराया जैसा कि पिछले सम्मेलन में हुआ था। पूरे सम्मेलन में विभिन्न देश इस बात को लेकर बँटे रहे कि उन्हें बजट घाटे को कम करने पर जोर देना चाहिए या आर्थिक विकास में तेज़ी लाने के लिए काम करना चाहिए।
पूंजीपती ही लेते हैं निर्णय
इस बैठक में विभिन्न देशों के प्रतिनिधि तो भाग लेते ही हैं साथ ही उन देशों के पूंजीपति भी भाग लेते हैं। यूरोपीय देशों का औद्योगिक समुदाय एक पक्ष में है जबकि शेष सदस्य देशों का उद्योग जगत दूसरे पक्ष में है। भारत का प्रमुख उद्योग चैंबर फिक्की ने गैर-यूरोपीय देशों के उद्योग चैंबरों के साथ मिल कर यूरोपीय देशों की तरफ से उठाए जाने वाले संरक्षणवादी कदमों का विरोध किया। ऐसा माना जाता है कि जी-20 की बैठक में इन औद्योगिक समूहों के विचारों का काफी महत्व होता हैै। इन औद्योगिक समूहों का जी-20 की बैठक में कितना महत्व है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि टोरंटो में समूह देशों की बैठक स्थल के पास ही ये अलग से भी अपनी बैठक करते रहे। हर सदस्य देश के उद्योग चैंबर अपने देश की सरकार को मुद्दों के बारे में लगातार राय देते रहे। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि इन औद्योगिक समूहों के फैसले शीर्ष नेताओं की वार्ताओं पर भी असर डालते हैं।
तानाशाह कभी नहीं सीखता
किसी विद्वान ने हिटलर के लिए कहा था कि तानाशाह कभी नहीं सीखता। लेकिन ऐसा लगता है कि आज दुनिया के अधिकांश पूंंजीवादी देशों के हुक्मरान हिटलर के ही रास्ते को अनुसरण करने में लगे हुए हैं। ऐसे तानाशाहों की दूसरी खूबी यह होती है कि वे कभी अपनी गलती नहीं मानते। वे हमेशा ही अपनी गलतियां का ठीेकरा दूसरों के सिर पर फोड़ते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत सबसे अच्छी तरह उनके उपर लागू होती है। लेकिन कभी-कभी इतिहास में ऐसे मौके आ जाते हैं जब हुक्मरानों के सारे झूठ बेपर्दा हो जाते हैं। दो वर्ष पहले जब अमेरिका में आर्थिक मंदी आयी थी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। पहले तो उसे वहां के हुक्मरानों ने यथाशक्ति छुपाये रखने की कोशिश की लेकिन आखिरकार सच्चाई बाहर आ ही गयी। सच्चाई बाहर आने के बाद दुनिया ने देखा कि दुनिया का दादा बनने वाले अमेरिका के पास खुद अपना तन ढांकने के लिए कपड़ा नहीं है। अब चाहे वह इरान के ऊपर गुर्राए या फिर पिछले सम्मेलन की तरह ही दुनिया को नए-नए सब्जबाग दिखाए लेकिन हकीकत तो यही है कि अब उसके ऊपर भरोसा करना बेवकूफी ही होगी। शायद यही वजह थी कि इस बार हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने कनाडा में भी प्रदर्शन किया है उनकी मांगें कमोवेश वहीं हैं जो पिछले साल थीं। ऐसा लगता है कि यह एक अनवरत सिलसिला है जो चलता रहेगा। मुश्किल ही है कि दुनिया के हुक्मरान उनकी बातों पर गौर करें, कम से कम इतिहास तो यही बताता है।
संपर्क : email-devhills@gmai.com, मोबाइल नं. 9911806746
बहुत ही शानदार आलेख है। इस आलेख की खूबसूरती मजदूरों के बारे में इसकी गहन जानकारी है। आप बधाई के पात्र है जो मजदूरों के बारें में इतनी जानकारियां हम लोगों तक पहुंचाई।
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