प्रबंधन को यूनियन नेताओं से ज्यादा भला बताया
संदीप राऊजी
जमशेदपुर में प्रबंधन एक कदम आगे जाकर अब प्रायोजित सर्वे करा रहा है। हाल ही में एक प्रायोजित सर्वे कराया गया जिसमें दिखाया गया है कि मजदूर अब यूनियन नेताओं पर भरोसा करने की बजाय मैनेजर साहब के पास अपनी समस्याएं लेकर जाने लगे हैं। यह हास्यास्पद सर्वे खासकर अखबारों के लिए तैयार किया गया और उसे खूब प्रचारित प्रसारित किया गया। यूनियनों को बदनाम करने के लिए जरा इस सर्वे का सर्वे करें-
लौहनगरी में टाटा स्टील व टाटा मोटर्स जैसी कंपनियों के अलावा छोटी-बड़ी करीब डेढ़ हजार कंपनियां हैं। इनकी बदौलत इस शहर की ख्याति पूरी दुनिया में तो है ही, इसे झारखंड की औद्योगिक राजधानी भी कहा जाता है। यही नहीं, यहां टाटा वर्कर्स यूनियन जैसा श्रमिक संगठन भी है, जिसके अध्यक्ष कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी रहे। इसके अलावा भी यहां सैकड़ों यूनियनें किसी न किसी रूप में सक्रिय हैं।
हाल ही में कौटिल्य विधि महाविद्यालय द्वारा टाटा स्टील, टाटा मोटर्स समेत आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र की कंपनियों के करीब 1200 मजदूरों-कर्मचारियों के बीच सर्वे कराया गया। हालांकि यह बात ओपेन सीक्रेट है कि यह घृणित काम प्रबंधन की शह पर किया गया। सर्वे में नतीजा निकाला गया कि यहां के मजदूर, ट्रेड यूनियन नेता की बजाय अपनी समस्या का निदान कराने को प्रबंधक के पास जाना ज्यादा मुनासिब समझते हैं।
सर्वे में सबसे बड़ा जो झूठ है वह यह कि 80 फीसदी मजदूर अपनी समस्या के लिए प्रबंधक के पास जाते हैं क्योंकि अब वे ज्यादा व्यवहारिक हैं। व्यवहारिक शब्द पर ध्यान दीजिएगा। सर्वे में कहा गया कि मजदूरों का मानना है कि उनके प्रबंधक सरकारी विभागों से ज्यादा डरते हैं, कानून या ट्रेड यूनियन से कम। 90 फीसदी मजदूर ट्रेड यूनियन को विश्वसनीय नहीं मानते, तो 95 फीसदी मजदूरों का मानना है कि नेता से उनके प्रबंधक ज्यादा ईमानदार हैं। इसके बावजूद करीब 70 फीसदी मजदूर प्रबंधक से काम कराने के लिए अपने साथी की सहायता लेते हैं, जबकि 20 फीसदी अकेले जाते हैं। पांच फीसदी मजदूर ही ट्रेड यूनियन लीडर से सहायता लेते हैं। जहां तक जानकारी की बात है, तो मजदूरों में पर्यावरण-प्रदूषण के बारे में जागृति बढ़ी है, तो सूचना का अधिकारी, श्रम कानून व मानवाधिकार के बारे में भी जानते हैं। यह दीगर बात है कि मजदूरों के अधिकारों, श्रमकानूनों के पालन जैसी विषयवस्तु पर कोई सर्वे नहीं कराया गया।
सर्वे में कहा गया है कि सरकारी विभाग के मामले में मजदूरों की राय स्पष्ट है। भ्रष्ट विभागों में उन्होंने फैक्ट्री इंस्पेक्टर, पीएफ विभाग, लेबर कमिश्नर को पहला, दूसरा व तीसरा स्थान दिया। उनसे जब पूछा गया कि अगर कोई आपके अधिकारों का हनन करता है, तो आप किसकी सहायता लेना पसंद करेंगे, इसमें भी 80 फीसदी ने प्रबंधक, 15 फीसदी ने सरकारी विभाग व 10 फीसदी ने कानून या कोर्ट की सहायता लेने की बात कही। पांच फीसदी ने ट्रेड यूनियन की मदद लेने की बात कही। निष्कर्ष में सर्वे पाठक को चौंकाने वाले अंदाज में बताता है कि 95 फीसदी मजदूरों ने अपनी कंपनी में किसी सरकारी अधिकारी को जांच या कार्रवाई के लिए आते नहीं देखा। कंपनियों में 10 फीसदी ही सिर्फ मैट्रिक तक पढ़े-लिखे मिले, शेष के पास इससे ज्यादा या कोई तकनीकी प्रशिक्षण था। और अंत में दुनिया का सातवां आश्चर्य यह है कि सर्वे घोषित करता कि साठ फीसदी मजदूरों को कार्यस्थल का माहौल अच्छा लगता है।
सर्वे में पूछे गए सवाल और जवाब
1. आपके प्रबंधक ईमानदार हैं : 95 -हां- 5 नहीं
2. ट्रेड यूनियन नेता विश्वसनीय हैं : 90 फीसदी-नहीं
3. श्रम कानून की कितनी जानकारी : 50-50 फीसदी
4. सबसे भ्रष्ट विभाग : फैक्ट्री इंस्पेक्टर -60, पीएफ विभाग-20, श्रम विभाग : 20
5. अधिकारों के प्रति जागरुक : 95
झूठ के ऐसे पुलिंदे टनों रोजाना पूंजीवादी अखबारों में बाक्स और हेडलाइन बनते हैं। इनसे सजग रहने का यही तरीका है कि हम इनके हथकंडों को उजागर करें। कहीं न कहीं ट्रेड यूनियनों की भी रणनीतिक गलती है। वे भी सर्वे करा सकती हैं भले ही वह न छपे लेकिन मजदूर अखबारों, वैकल्पिक मीडिया जगत में तो इन्हें स्थान मिल ही जाएगा। दूसरी बात कि अभी तक इस सर्वे के खिलाफ किसी ट्रेडयूनियन का विरोध सामने नहीं आया है जो इस झूठ को और स्थापित करने में ही मदद देगा।
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23 मार्च
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Friday, July 16, 2010
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