Saturday, July 17, 2010

हम हारे, क्योंकि हम कमजोर थे

देवेन्द्र प्रताप

आज किसी भी क्षेत्र का मजदूर हो आमतौर पर उसे 12 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है। देश में न्यूनतम मजदूरी ऐक्ट के बने होने के बावजूद देश में मजदूरों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जो न्यूनतम मजदूरी से वंचित है। यदि किसी को न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उससे ज्यादा मजदूरी मिलती है तो उसे आठ घंटे की जगह 12 घंटे-14 घंटे काम करना पड़ता है। नियम तो यह भी है कि एक मजदूर जो 8 घंटे से ज्यादा काम करता है तो उसे अतिरिक्त काम के घंटो के लिए दोगुनी दर से मजदूरी का भुगतान किया जाए। ऐसे ही अन्य नियम भी हैं जिन्हें यदि सरकार लागू कर दे तो मजदूरों की दाना-पानी से सम्बन्धित अधिकांश समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। लेकिन पिछले 50-60 साल में फिलहाल ऐसा नहीं नजर आया जबकि किसी सरकार ने मजदूरों की ओर से बिना दबाव पड़े उनकी समस्याओं का समाधान कर दिया हो। आज तो यह हालत है कि मजदूरों ने काफी संघर्ष और कुर्बानियों के बाद जो अधिकार हासिल किया था आज सरकार उनको भी छीनने में लगी हुई है। आज मजदूर आन्दोलन भी पस्ती की हालत में है इसलिए वह सरकार के ऊपर दबाव बनाने में सक्षम नहीं है। उसके आन्दोलन की मददगार वामपंथी पार्टियों ने भी आज अपने पांव पीछे कर लिए हैं या फिर सिर्फ कदमताल करने में लगी हुई हैं। आज उनकी समूची ताकत टूटकर कई-कई खण्डों में विभाजित हो गयी हैं। वामवंथी आन्दोलन का विखराव भी मजदूरों की समस्याओं के लिए एक प्रधान कारण है। जिस समय देश में मजदूर आन्दोलन चढ़ाव पर था तो मजदूरों के अलग-अलग सेक्शन एक दूसरे के आन्दोलनों को मदद करते थे लेकिन आज स्थिति बिल्कु ल बदल गयी है। आज एक दूसरे की मदद करने की भावना न सिर्फ समाज से बल्कि मजदूर आन्दोलन से भी गायब हो गयी हो गयी है। इसी त्रासदी का परिणाम है कि 21वीं सदी में प्रवेश कर चुकी मानव सभ्यता में आज भी कड़ी मेहनत करने वाला मजदूर दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहा है। सीपीआई, सीपीएम जैसी वामपंथी पार्टियों की हालत यह है कि उन्होंने अपने विभाजन के साथ ही देश के मजदूरों को भी अलग-अलग बांट दिया है। हकीकत तो यह है कि मजदूरों के अलग-अलग संगठन आज वाम और दक्षिण दोनों तरह की पार्टियों के पॉकेट संगठन बन गये हैं। जहां तक भवन निर्माण जैसे असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत तो और भी खराब है। ज्यादातर संगठित क्षेत्र में मजदूरों की यूनियनें हैं भले ही उनकी हालत कितनी ही कमजोर क्यों न हो। जहां तक भवन निर्माण के क्षेत्र में मजदूर यूनियन का सवाल है यह समूचा क्षेत्र अभी इससे वंचित है। कुछेक यूनियनें हैं भी तो उनकी हालत बेहद खराब है। पिछले एक दशक से निर्माण क्षेत्र में देश में वामपंथी और कुछ दक्षिण पंथी पार्टियों के संगठन काम कर रहे हैं लेकिन अभी तक उनके ऊपर मजदूर वर्ग का विश्वास नहीं जम पाया है। इनकी सबसे खराब बात यह है कि ये मजदूरों को सेक्शनल लड़ाइयों तक ही सीमित रखते हैं। ऐसा लगता है कि आज इनके लिए -दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा- मात्र कागज पर लिखे कुछ लाल-लाल अक्षर से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। राष्ट्र निर्माण में अपना श्रम बेच कर 85 प्रतिशत से अधिक का योगदान डालने वाला मजदूर खुद अपने विकास से कोसों दूर है। सवाल उससे भी बनता है कि आखिर कब तक किसी मसीहा की प्रतीक्षा करेगा? यह भी एक कमजोरी है कि मजदूर आमतौर पर सोचता है कि लोग उसकी मदद करने आयेंगे। जब तक पानी सर के ऊपर से नहीं गुजर जाता तब तक उसे विरोध की राजनीति करने की नहीं सूझती। और जब समस्याएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि लड़े बिना काम नहीं चलता तो वह लड़ता है। लेकिन ऐसा देखने में आता है कि किसी एक क्षेत्र का मजदूर अपने दूसरे मजदूर भाइयों की मांगों को नहीं उठाता। इस मामले में वह स्वार्थी होता है। और ज्योंही उसका स्वार्थ पूरा हो जाता है यानी उसका मालिक उसकी कुछ मांगों को मांग लेता है तो वह दूसरे भाइयों का दर्द भूल जाता है। वह कभी-कभी अपने दूसरे मजदूर भाइयों के बारे में सोचता भी है तो उनके साथ कोई एकता नहीं बनाता। किसी पेशे विशेष के मजदूर की यही प्रवृत्ति, उनका यही स्वार्थ उसे दूसरे मजदूरों से काट देता है। अगर वह हार जाता है तो वह निराशा के भंवर में फंस जाता है। उसे लगता है कि सारी दुनिया में उसकी ओर से कोई लडऩे वाला नहीं है। वह सोचता है कि मालिकों की ताकत ज्यादा है वे उससे ज्यादा ताकतवर हैं और वह उनसे नहीं जीत सकता। वह जो सोचता है सही सोचता है वह इस मामले में कोई मध्यवॢगयों जैसी रुमानियत का शिकार नहीं है। बल्कि सच कहें तो वह ज्यादा यथार्थवादी है। आज के मजदूर आन्दोलन के पराभव के पीछे यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है। लेकिन कहते हैं न कि हर हार में जीत के भी कुछ बीज छुपे होतें होते हैं। इस मामले में भी यह लागू होता है। मजदूर हारता है क्योंकि वह अलग-अलग पेशागत लड़ाइयां लड़ता है। कई बार एक पेशे विशेष का मजदूर भी कई-कई खण्डों में बंटा होता है। यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। उसके सामने जो दुश्मन है वह ज्यादा ताकतवर सिर्फ इसलिए है क्योंंकि वह संगठित है। न सिर्फ देश के पैमाने पर वरन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वह संगठित है। इसलिए जब लड़ाई एक कमजोर और ताकतवर के बीच होगी तो निश्चित ही जीत ताकतवर की होगी। इस गुत्थी को हल किये बिना मजदूर वर्ग के लिए जीत की कल्पना करना भी मुश्किल है। आज उसके लिए सबसे ज्यादा जरुरत इस बात की है कि वह अपनी गलती ठीक करे।

2 comments:

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  2. Sandep ji is kam ko khas karke vichardhara ke masale par batchit ko aage barhaie janab.

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