11 जून को अफ्रीका के जोहान्सवर्ग शहर में फीफा विश्व कप का भव्य आयोजन हुआ। इसी दिन 140 देशों के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, टे्रडयूनियनों और कई अन्य संगठनों ने बाल मजदूरी के खिलाफ अपने-अपने देशों में प्रदर्शन किया। ऐसे प्रयासों के बावजूद फुटबाल उद्योग मे बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी का चलन जारी है। फुटबाल उद्योग में बाल मजदूरी के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती रिपोर्ट----
भारत में बच्चों से काम लेना साधारण सी बात मानी जाती है। लेकिन समाज में शिक्षा बढऩे के साथ ही लोगों की सोच में भी बदलाव आया है। पाकिस्तान के बंधुआ मजदूरों के ऊपर 1995 की एक रिपोर्ट ने वहां के फुटबाल उद्योग में बड़े पैमाने पर बाल मजदूरों और बंधुआ मजदूरों के इस्तेमाल का खुलासा किया था। यह पहली रिपोर्ट थी जिसनें खेलों की रंग-विरंगी दुनिया के पर्दे के पीछे की वीभत्स तस्वीर को सामने कर दिया था। तथाकथित राष्ट्रवादियों के पाकिस्तान के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए यह एक बेहतरीन सामग्री थी और इसका वे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल भी कर सकते थे क्योंकि इस खबर का अंतर्राष्ट्रीय महत्व था। बहरहाल उनकी इस खुशी को काफूर होते ज्यादा वक्त नहीं लगा क्योंकि उसके तुरन्त बाद ही फुटबाल उद्योग और खेल सामग्री के निर्यात के दूसरे सबसे बड़े बाजार भारत के ऊपर ही गाज गिर गयी। तभी से फुटबाल उद्योग में बाल श्रम के इस्तेमाल से सम्बन्धित यह मुद्दा समय-समय पर मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा उठाया जाता रहा है। इतने प्रयासों के बाद भी इस उद्योग में बाल श्रम का अभी भी उपयोग जारी है।साउथ एशियन कोलिशन ऑन चाइल्ड सर्विटय़ूड (एसएसीसीएस) ऐसी पहली संस्था है जिसने 1997 में पहली बार भारतीय खेल सामाग्री निर्माण उद्योग में काम करने वाले बाल श्रमिकों की दुस्वार कठिनाइयों को पूरे जोर के साथ विश्व पटल पर रखा। एसएसीसीएस ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में बाल श्रमिकों का जो संख्या बतायी है वह उस समय ही लाखों में थी। एस ए सी सी एस की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 1998 में लगभग 10000 बच्चे जालंधर में कार्य करते थे। पहले, भारत में यह काम जालंधर और मेरठ में किया जाता था लेकिन आजकल गुडग़ांव में भी यह काम शुरू हो चुका है। भारत में खेल सामग्री उत्पादन में जालंधर पहले स्थान पर है जबकि उत्तर प्रदेश में मेरठ दूसरे स्थान पर। हरियाणा में गुडग़ांव तीसरे स्थान पर है।
बाल श्रमिकों का नारकीय जीवन
फुटबाल की सिलाई का कार्य बहुतायत रूप में घर पर ही किया जाता है। निर्माता कम्पनियां फुटबाल का पैनल अपनी फैक्ट्री में बनाती है और फिर उसे सब-कंाट्रैक्टर के माध्यम से लोगों के घरों पर काम करवाती हंै। इन मजदूरों में ज्यादातर बहुत गरीब परिवार के बच्चे होते हैं जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने को मजबूर होते हैं। यही बच्चे ठेकेदारों के शिकार बनते हैं। नीदर लैंड से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस मजदूरों में से 90 प्रतिशत लोग भारतीय समाज में अछूत समझे जाने वाले दलित तबके से ताल्लुक रखते हैं। फुटबाल उद्योग में लगे दलित मजदूर और उनके बच्चे बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी के सबसे बड़े शिकार हैं। 1998 में जब न्यूनतम दैनिक मजदूरी 63 रुपये थी तब एक बालिग मजदूर को 20 रुपये मिलते थे। आज भी वही हाल है। सामान्यत: एक बंधुआ मजदूर को न्यूनतम मजदूरी के बारे में पता ही नहीं होता है। भारतीय कानून के अनुसार मुख्य निर्मात कम्पनियों को मजदूरों के वेतन और अन्य सुविधाओं की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि इस बारे में न तो हमारे नीति निर्माताओं को चिन्ता है और न ही उन कम्पनियों को जिनके लिए ये बाल मजदूर अपना बचपना बर्बाद कर देते हैं। पांच साल से ही बच्चे इस काम में शामिल हो जाते हैं। इनमें से बहुत कम ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने कभी स्कूल कभी स्कूल भी देखा हातो है। यदि स्कूल गये भी तो वे उसे जारी नहीं रख पाते क्योंकि उनके घर की माली हालात उन्हें यह करने नहीं देती। मेरठ के फुटबाल उद्योग में पूरा समय काम करने वाले बच्चों में से 40-50 प्रतिशत ऐसे बच्चे हैं जिनकी आयु 5 से 14 वर्ष के बीच है। पांच छ: वर्ष के बच्चे दस-दस घंटे काम करते हैं। उनके लिए यह न्यूनतम काम के घंटे होते हैं। सामान्यत: वह 11-12 घंटे लगातार काम करते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें बचपन में ही पीठ व जोड़ों के दर्द की शिकायत हो जाती है। 30 वर्ष के होते-होते उनकी आंख की रोशनी भी कम होने लगती है। और इस तरह वे किसी काम के नहीं रह जाते।
बालश्रम की रोकथाम का गोरखधंधा
फुटबाल निर्माण में बालश्रम रोकने के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल महासंघ (फीफा) के वर्ष 1996 के प्रसिद्ध समझौते, यूरोपीय संसद के 2007 के प्रस्ताव, भारतीय खेल सामग्री निर्माण उद्योग के संबंध में साफ निर्देशों और सभी सरकारी दावों के बावजूद फुटबाल निर्माण में न सिर्फ बाल श्रम बल्कि बंधुआ मजदूरी का चलन भी जारी है। इंटरनेशनल लेबर राइट्स फोरम के सहयोग से बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) द्वारा किए एक नए अध्ययन के अनुसार अभी भी 5,000 बच्चे फुटबाल सिलाई के साथ ही बेसबाल, क्रिकेट बाल, बास्केटबाल वॉलीबाल, टेनिस बाल और अन्य खेलों का सामान बनाने के काम में लगे हुए हैं। भारतीय खेल उद्योग कुल 318 तरह के खेल सामान बनाते हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर और पंजाब के जालंधर की झुग्गियों में ये बच्चे अपने परिवार द्वारा भारी कर्ज के चलते बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने के लिए मजबूर किए जाते हैं। इसका उनके स्वास्थ्य और शिक्षा पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है।प्रसिद्ध बाल अधिकार कार्यकर्ता और बीबीए के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी द्वारा किए गए अध्ययन के ये निष्कर्ष ऑफ साइड चाइल्ड लेबर इन फुटबाल स्टीचिंग- ए केस स्टडी ऑफ मेरठ डिस्ट्रिक्ट शीर्षक से जारी किए गए हैं। सत्यार्थी ने इस अध्ययन में जिन पांच बच्चों को शामिल किया है वे अब बीबीए के अंतर्गत स्कूल में दाखिल हो चुके हैं। पर यह सवाल यह है कि जितने बड़े पैमाने पर इस उद्योग में बंधुआ मजदूरी का चलन है क्या उसके समाधान के लिए ये प्रयास नाकाफी नहीं हैं। कैलाश सत्यार्थी के अनुसार मेरठ के बाहरी इलाके बुद्धविहार और कमालपुर या नजदीकी गांव शिवाल खास में हजारों बच्चे कृत्रिम चमड़े से फुटबाल बनाने के काम में लगे हुए हैं। इन सामानों पर बाद में बालश्रम मुक्त का ठप्पा भी लगा दिया जाता है। बीबीए द्वारा वर्ष 1996 में पहली बार इस मामले को सामने लाने के बाद से फुटबाल सिलने में बच्चों के उपयोग में काफी अधिक कमी आई है। अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ताओं के दबाव और बीबीए और अन्य स्वंयसेवी संगठनों की गतिविधियों के कारण फुटबाल उद्योग में लगे बच्चों की संख्या 20,000 से घटकर अब 5,000 रह गई है।
बालश्रम से हो रही है देश की प्रगति!
भारत के फुटबाल उद्योग से न सिर्फ विदेशी कम्पनियां अकूत कमाई करती हैं वरन इससे भारत सरकार को भी करोड़ों फायदा होता है। 1998-1999 के बीच भारत ने 125.54 करोड़ रुपये की खेल सामग्री का व्यापार किया जबकि यही वर्ष 2000 में बढ़कर 7854. 76 लाख रूपए हो गया। भारत से बनी खोल सामग्री ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, नीदरलैंड अमेरिका आदि देशों को निर्यात होती है। यह कितना अजीब लगता है कि इतनी सम्पदा हमारे देश के नन्हें-नन्हें बच्चे पैदा करते हैं। बीबीए के अध्यन से यह स्पष्ट हो गया है कि इन बच्चों से 12-14 घंटे तक काम लिया जाता है। बच्चों के शरीरिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इनमें से 35 प्रतिशत बच्चों को चमड़ा सिलने की सुई के कटने से घाव हो जाता है। कई बार यह घाव पक कर नासूर बन जाता है। इसी तरह अन्य 35 प्रतिशत बच्चों को आंख में दर्द, 50 प्रतिशत को पीठ दर्द और 85 फीसदी बच्चों को हाथों और अंगुलियों में बराबर दर्द की शिकायत रहती है। हालत यह है कि ये बच्चे जिन कम्पनियों के लिए काम करते हैं वे बच्चों के दवा इलाज तक की व्यवस्था नहीं करतीं। बीबीए से जुड़े मनोज मिश्रा का कहना है कि बंधुआ और बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए अब तक हजारों बच्चों ने मजिस्ट्रेट और श्रम निरीक्षकों के सामने बार-बार बयान दिया है कि उनसे कहीं दो वक्त के रुखे-सूखे भोजन पर कहीं तो कहीं नाममात्र की मजदूरी पर हर रोज 14 से 16 घंटे काम कराया जाता है। इसके बावजूद श्रम विभाग वर्षों के बाद भी क्यों चुप्पी साधे बैठा है ? श्रम मंत्री तक ने इस मसले पर चुप्पी साध रखी है। उन्होंने यह भी कहा कि कारखानों का पंजीयन न होने से बाल श्रम कानून के तहत चालान होते ही कारखाना मालिक किराए के उस मकान को छोड़ कहीं अन्यत्र अड्डा जमा लेता है, जिससे अदालत में दायर सैकड़ों मुकद्में उसके लापता होने से अब तक खारिज हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि बचपन बचाओ आन्दोलन का उद्देश्य समस्या को अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों के सामने सनसनी के रूप में पेश करना नहीं वरन उसके लिए प्रयास करना है। उन्होंने बताया कि बीबीए ने घरेलू उपभोक्ताओं के बीच भी यह अभियान शुरू किया है ताकि वे बालश्रम मुक्त खेल के सामान की मांग करें। जाहिर है यदि बीबीए अपने मकसद में कामयाब होता है तो निश्चित तौर पर यह भारत के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।
सम्पर्क: एक कदम आगे-हिन्दी पाक्षिक, से.-5, वसुन्धरा, गाजियाबाद, उ.प्र. :: फोन नं. 09911806746
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23 मार्च
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Friday, July 23, 2010
जिनके दम पर रोशन है यह खेलों का संसार
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