Thursday, July 8, 2010

ताकि विस्थापन का मसला, प्रतिरोध के मूल प्रश्न को ही न विस्थापित कर दे

चंद्रमोहन
पिछले दस वर्षों में औद्योगीकरण और ढांचागत विकास के लिए भूमि अधिग्रहण की गति बहुत तेज हुई है। इसी के साथ इसका प्रतिरोध भी तेज हुआ है। यह समस्या देश की प्रमुख राजनीतिक समस्या बन चुकी है, लेकिन इसका समाधान कैसे हो इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

विस्थापन के खिलाफ अभी तक सिर्फ प्रभावित लोग ही संघर्ष के मैदान में हैं। देश के अन्य तबके, खासकर मजदूर वर्ग पूरी तरह आंदोलन से दूर खड़े हैं। इससे राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिरोध की राजनीति की ठोस शक्ल सामने नहीं आ पा रही है। शासक वर्ग जनता के हर सवाल को स्थानीय सवाल बना देने में अभी तक सफल हैं, जबकि जनता की पक्षधर राजनीति उन्हें राष्ट्रीय रूप नहीं दे सकी है। इसके कारणों को समझना हमारे लिए बेहद जरूरी है।

एक और तथ्य है जिसे रेखांकित करना जरूरी लगता है। विस्थापन के विरोध में पूरे देश में जो अलग - अलग आंदोलन चल रहे हैं उनमें से ज्यादातर जमीन का अधिकतम दाम पाने भर के संघर्ष में बदलते जा रहे हैं। यह मालिक - किसानों के नजरिये में आया एक महत्वपूर्ण बदलाव है। निश्चित तौर पर इस सोच के बदलाव के पीछे ठोस कारण होंगे। एक कारण तो समझ में आता है कि छोटी खेती लगातार किसानों के लिए बोझ बनती जा रही है। हर वर्ष वह जितनी लागत लगाता है उससे कम पाता है। इसके साथ एकमुश्त बड़ी रकम पाने का लालच है, वह सोचता है कि इसके बल पर वह कोई काम-धंधा शुरू कर लेगा और जीवन कुछ आसान हो जाएगा। यह सोच ही उसकी आर पार की लड़ाई को पहले दिन से ही कमजोर करना शुरू कर देती है।

इसका अर्थ है कि खेती लगातार पूंजी पर निर्भर होती गई है और किसान भी जमीन से अधिक पूंजी को महत्व देने लगा है। रह गया जमीन से भावनात्मक लगाव, तो उसे खाली पेट कब तक ढोया जा सकता है? शहरों में, गांवों से आकर मजदूरी करने वाले किसानों की लगातार बढ़ती संख्या आज की एक निर्मम सचाई है।

विस्थापन की समस्या को एक किसान समस्या के रूप में देखना, कई तरह की राजनीतिक विसंगतियां पैदा कर देता है। क्या देश में किसानों की बढ़ती गरीबी, आत्महत्याएं, शहरों की ओर उनका पलायन आदि के लिए जमीनों के अधिग्रहण की प्रक्रिया जिम्मेदार है? क्या इसी कारण खेती के पैदावार की विकास दर घटती जा रही है? यदि ऐसा ही है तो सस्ते बीज, खाद, पानी, बिजली और उपज के वाजिब मूल्य पाने के लिए आवाज उठाने की क्या जरूरत है?

सच तो यह है कि विस्थापन के सवाल को किसान समस्या के रूप में उठा देने से किसानों की वास्तविक समस्याएं आंखों से ओझल हो जाती हैं। इसके साथ ही देश की अन्य मेहनतकश आबादी स्वाभाविक तौर पर इस लड़ाई से कट जाती है। यहां तक कि गांवों की भूमिहीन मेहनतकश आबादी भी इस लड़ाई से खुद को जोड़ नहीं पाती। निश्चित तौर पर विस्थापन की प्रक्रिया में किसान पहला पक्ष है। लेकिन यह एकमात्र पक्ष नहीं है। यह विस्थापन एक केंद्रीकृत आर्थिक नीति का परिणाम है। इस आर्थिक नीति के पीछे देश के पूंजीवादी विकास की एक स्पष्ट योजना है। वह है, देश को सस्ते श्रम पर आधारित एक विशाल विनिर्माण क्षेत्र में बदलने की, ताकि विश्व बाजार में एक मजबूत प्रतियोगी के तौर पर हस्तक्षेप किया जा सके।

देश के अधिकांश लोगों की भीषण गरीबी देश के पूंजीपति वर्ग के लिए वरदान है। इससे श्रम शक्ति की कीमत बढऩे नहीं पाती है। इस आर्थिक नीति की मार चौतरफा है। इस नीति के तहत ही ठेका मजदूरी, आउटसोर्सिंग, विनिवेशीकरण हो रहा है, श्रम कानूनों को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। इसी की मार छोटे उद्यमियों-व्यापारियों पर है और इसी के चलते गरीब किसानों-आदिवासियोंको बेदखल किया जा रहा है। इसी कारण काल्याणकारी राज्य को बाजारू राज्य में बदला जा रहा है जिसमें सामाजिक जीवन के लिए हर आवश्यकता बिकाऊ माल बना दी जाती है और जो खरीद नहीं सकता उसे जीने का भी अधिकार नहीं होता। यह पूरी प्रक्रिया पूंजी के संकेंद्रीकरण को लगातार बढ़ाती जाती है और मुट्ठी भर वित्तीय महाप्रभु देश की समस्त प्राकृतिक भोतिक संपदा के मालिक बनकर श्रम शक्ति के मनमाने दोहन में लग जाते हैं। धीरे-धीरे उनकी लूट का तंत्र पूरी दुनिया में फैलने लगता है और राज्य मशीनरी को वे एक युद्ध मशीनरी में बदल कर अपने इस लूट तंत्र की हिफाजत में लगा देते हैं। जनवाद अंतिम सांसें लेने लगता है और इसकी बात भी करने वाले को देश के विकास में बाधक, देशद्रोही, आतंकवादी घोषित करके जेलों में डाल दिया जाता ।

विस्थापन के प्रश्न को इसलिए हमें बहुत व्यापक रूप में देखना होगा, न कि सिर्फ किसान प्रश्न के रूप में। विस्थापन एकाधिकारी पूंजीवाद की लुटेरी नीतियों का परिणाम है, यह स्वयं में कोई कारण नहीं है। हमारी नीति इन कारणों के खिलाफ देश की समस्त शोषित-पीडि़त जनता को गोलबंद करने की होनी चाहिए। विस्थापन के खिलाफ किया जा रहा हमारा प्रतिरोध तभी एक अखिल भारतीय जनांदोलन रूप लेगा।यहीं पर मजदूर वर्ग की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि इन नीतियों का अंतिम लक्ष्य ही है श्रम शक्ति के दोहन की तीव्रता बढ़ाकर और पूंजी पैदा करना। पूंजी व्यय हो चुकी श्रम शक्ति है और यह श्रम शक्ति के बगैर निर्जीव है। इस श्रम शक्ति का वास्तविक मालिक मजदूर वर्ग, इसीलिए इस संघर्ष की मुख्य और अग्रणी शक्ति है। इसी वर्ग की यह अहम जिम्मेदारी है कि वह पूंजी केंद्रित विकास योजनाओं के विकल्प के रूप में श्रम एवं मनुष्य केंद्रित विकास योजनाएं रखे और सारी मजदूर एवं मेहनतकश जनता को इसे लागू करने के लिए गोलबंद करे।

ऐसा न करके, अगर विस्थापन के सवाल को सिर्फ किसान प्रश्न बनाकर मजदूरों को इससे अलग रखा गया तो इससे पूंजीवादी पार्टियों को ही फायदा होगा। पूंजीवादी राजनीति के अलग-अलग चेहरे इस आंदोलन की पीठ पर सवार होकर संसद-विधानसभाओं में पहुंचते रहेंगे और गरीब किसानों की तबाही-बर्बादी का अनवरत चलने वाला सिलसिला कभी रुकेगा नहीं। आज के दौर में छोटी पूंजी को बड़ी पूंजी की मार से बचाने की लड़ाई तभी कारगर होगी जब हम पूंजी के वर्चस्व को चुनौती देने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। तभी तमाम मजदूर जनता इस संघर्ष का हिस्सा बनेगी। एकाधिकारी पूंजी के हमले की शिकार जनता के सभी हिस्सों को एक साथ ले चलने की कार्य नीति पर अमल करना होगा।

पूंजीपति वर्ग ने अपने लालच के कारण देश के मजदूरों-गरीब किसानों और तमाम उत्पीडि़त वर्गों-समूहों पर एक साथ हमला करके सभी को अपने खिलाफ कर लिया है। इस तरह उशने मजदूर वर्ग - गरीब किसान जनता की जुझारू जनता की ठोस जमीन तैयार कर दी है और देश की बहुसंख्य जनता को पूंजी की सत्ता के खिलाफ एकजुट होने का मौका मुहैया करा दिया है।

इस मौके का हमें लाभ उठाना चाहिए। गांव-गांव में गरीब किसानों की किसान समितियां और मजदूर समितियां गठित करना शुरू कर देना चाहिए। शहरों में मजदूर समितियों का गठन करके उन्हें कस्बे, ब्लॉक और गांव समितियों से एकताबद्ध करके ऐसा सांगठनिक ढांचा तैयार करना चाहिए जो एक व्यापक जन आंदोलन को संभाल सके, उसे सही दिशा दे सके। ऐसा नहीं है कि इतिहास आज पूंजीवादी नीतियों के पक्ष में है। इनका हर कदम इनके समूल नाश की दिशा में इन्हें ले जा रहा है। इसके खिलाफ देश की समस्त शोषित-उत्पीडि़त जनता की फौलादी एकता की जमीन तैयार होती जा रही है। हमें इस जमीन में सही फसल उगाने का काम तुरंत शुरू करना होगा।
(‘ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल बुलेटिन’ से साभार)

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